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प्रव्रज्या-कल्याणक
सम्यग्दर्शन सरागसंयम में परिणत होता है और सरागसंयम वीतराग चारित्र में परिणत होता है। इसी वीतराग चारित्र को प्रकट करने हेतु पुरुषार्थ मूर्ति अरिहंत प्रव्रज्या मार्ग में अणगार बन अभिनिष्क्रमण करते हैं। सर्वविरति बनकर ही कर्मों के साथ संग्राम करने के लिए ये संसार त्यागकर संयम मार्ग में संक्रमण करते हैं। इनका आत्मवीर्य अपूर्व होता है। सामान्य आत्माओं की तरह इनकी पूर्व अवस्था में ऐसा कोई अल्प प्रयास ये महात्मा नहीं करते हैं। वैसे तो च्यवन से ही उनका जीवन साधनामय ही होता है और बाद में वे सीधे सर्वविरति बनकर अणगार हो जाते हैं। उदितोदित पुण्यबल होने पर परम त्याग के पथिक बन हजारों विराग योग्य भव्य आत्माओं के दिव्य प्रेरणादीप बनकर प्रव्रजित हो जाते हैं।
अरिहंत परमात्मा स्वोद्धारक ही नहीं होते हैं, विश्वोद्धारक भी होते हैं। जन्म से ही अनासक्त होने पर भी उस अनासक्ति को साकार रूप देने की उनकी यह उत्सुकता बहुधा विचारणीय हो जाती है। यह उत्सुकता कई बार कुछ जिज्ञासाएँ प्रकट करती है कि-जो अन्तर्मन से अणगार हैं उन्हें आगारत्याग की क्या आवश्यकता है ? जो जन्म से वैरागी है, उन्हें संयमन्नर्या ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है? अरिहंत को आगार में ही कैवल्य की अपूर्व लब्धि संभव हो सकती है। परन्तु विश्वोद्धार घर में सम्भव नहीं। पर-उद्धार की प्रतिज्ञा तो तीसरे जन्म में ही ये कर चुके होते हैं। वह विशिष्ट विश्वदया प्रव्रज्या के अतिरिक्त परिणाम रूप नहीं बन सकती है। __इनके प्रव्रज्या हेतु से हम अनजान नहीं हैं। जो हेतु सम्यग्दर्शन की उपलब्धि से उद्भूत होता है, बीस या उनमें से कुछ विशिष्ट कारणों से व्यवहृत होता है और सर्व जीवों को शासन रसिक बनाने की मंगल भावना से संयुक्त होता है वही यहां प्रव्रज्या का साकार रूप बन जाता है।
वीतराग दशा और कैवल्य सिद्धि की प्राप्ति हेतु प्रव्रजित होने वाले साधक परसहाय की इच्छा.नहीं करते हैं, दीन भाव नहीं रखते हैं, और कौतुहल प्रिय नहीं बनते हैं। यही कारण था जो श्रमण भगवान महावीर ने शक्रेन्द्र की सहायता भी अस्वीकृत की। घाति चतुष्टय कर्मों के क्षय के अतिरिक्त अब इनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं, विकास की इस महायात्रा का प्रारम्भ प्रव्रज्या से ही होता है। प्रयोग केवलज्ञान द्वारा विश्वोद्धार से होता है और विराम निर्वाण में होता है। ऐसी यह अवस्था-त्रय की सुलीनता कल्याण-त्रय की मंगलकारिता बन जाती है।