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________________ प्रव्रज्या-कल्याणक १७५ (१) क्षुधा (८) वध (२) तृषा (९) अलाभ (३) शीत (१०) रोग (४) उष्ण (११) तृणस्पर्श (५) दंशमशक (१२) मल (६) चर्या (१३) प्रज्ञा और (७) शय्या (१४) अज्ञान इनको मोहजन्य (१) नग्नता, (२) अरति, (३) स्त्री, (४) आसन (निषद्या), (५) दुर्वचन, (६) याचना, (७) सत्कार-पुरस्कार और (८) अदर्शन ये आठ परिषह नहीं होते हैं। बारह गुणस्थानों को पार कर तेरहवें गुणस्थान में आने पर अरिहंत परमात्मा को ग्यारह परीषह होते हैं। उपरोक्त कथित चौदह परीषहों में से अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञान इन तीन को छोड़कर वेदनीय आश्रित ग्यारह होते हैं। क्योंकि यहाँ जिनेन्द्र भगवान् ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय इन घातिकर्मों का नाश कर दिया होता है। - प्रस्तुत विवेचन के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मतभेद है। यह मतभेद सर्वज्ञों के कवलाहार करने न करने के सम्बन्ध में है। दिगम्बर सम्प्रदाय वाले केवली को कवलाहार नहीं मानते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले मानते हैं। इसीलिये दिगम्बरीय व्याख्याग्रन्थ “एकादश जिने" इस रूप को मानकर भी इसकी व्याख्या दो तरह से की गई है, तथा वे दोनों संप्रदायों के तीव्र मतभेद के बाद की ही है ऐसा स्पष्ट मालूम पड़ता है। पहली व्याख्या के अनुसार ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिन सर्वज्ञ में क्षुधा आदि ग्यारह परीषह (वेदनीय कर्मजन्य) हैं, लेकिन मोह न होने से वे क्षुधा आदि वेदना रूप न होने के कारण सिर्फ उपचार से द्रव्य परीषह हैं। दूसरी व्याख्या के अनुसार "न" शब्द का अध्याहार करके ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिनमें वेदनीय कर्म होने पर भी तदाश्रित क्षुधा आदि ग्यारह परीषह मोह के अभाव के कारण बाधा रूप न होने से हैं ही नहीं। उपसर्ग-विजेता अरिहंत ___ जिनके द्वारा जीव को श्रुत चारित्र रूप धर्म से विचलित किया जाता है, उन्हें उपसर्ग कहते हैं। वे उपसर्ग चार प्रकार के हैं(१) दिव्य-देवकृत जैसे संगम का भगवान महावीर के प्रति किया गया उपसर्ग। (२) मानुषी-मनुष्यकृत जैसे गौशाला का भगवान महावीर के प्रति किया गया उपसर्ग।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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