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________________ १७६ स्वरूप-दर्शन (३) तिर्यग्-यौनिककृत जैसे चंडकौशिक का भगवान महावीर के प्रति किया गया उपसर्ग। (४) आत्म संवेदनीय (स्वकृत) अपने आप होने वाले :-जैसे बैठे-बैठे पैर आदि का शून्य हो जाना। दिव्य उपसर्ग के चार प्रकार हैं-(१) हास्य से, (२) प्रद्वेष से, (३) विमर्श परीक्षा से तथा (४) पृथग्विमात्रा से (विविध प्रकार के हास्यादि से)। मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों के भी चार प्रकार हैं(१) हास्य से, (२) प्रद्वेष से, (३) विमर्श से तथा (४) कुशील प्रतिसेवन से। . तिर्यंच सम्बन्धी चार उपसर्ग हैं-(१) भय से, (२) प्रद्वेष से, (३) आहार हेतु तथा (४) अप्रत्यलयन संरक्षण (बालक और स्थान की रक्षा के लिए)। आत्म संवेदनीय उपसर्ग के भी चार प्रकार हैं(१) संघट्टण - जैसे आँख में रजकण संघट्टित किये जाने पर, (२) प्रपतनक - गिरने से, (३) स्तम्भन - अवयवों के रह जाने से तथा, . (४) श्लेषणक - वातादि पैरादि के संकोच जाने से। विभिन्न प्रांतों में एवं प्रदेशों में विचरते हुए अरिहंतों को देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी जो भी उपसर्ग प्राप्त होते हैं वे उन सब उपसर्गों को खेद रहित बिना दीनता के समभाव पूर्वक सहन करते हैं। मन, वचन तथा काया से गुप्त होकर उन उपसर्गों को भली भाँति सहन करते हैं और उपसर्ग-दाताओं को क्षमा करते हैं तथा सहिष्णुता और स्थिर भावों से उन पर विजय प्राप्त करते हैं। इस प्रकार अरिहंत परमात्मा आदरदाता या अनादर कर्ता, स्तुतिकर्ता यां निंदा कर्ता, भक्ति युक्त या भक्ति विहीन सभी प्राणियों के प्रति समान भाव वाले होते हैं, किसी के प्रति भी इन्हें पक्षपात नहीं होता है। शत्रु या मित्र में ये समान भाव वाले होते हैं। आहार-विहार एवं व्यवहार में सर्वत्र समभाव पूर्वक उग्र तप में अपना साधनाकाल व्यतीत करते हैं। खेत, पर्वत, गिरि, गह्वर, गुफादि में पहुंचकर देहावस्था संकुचित. करके उसे संयमित कर मन को ध्यान की पराकाष्ठा तक ले जाकर विविध आसनों में अरिहंत केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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