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१७४ स्वरूप-दर्शन
लोग आकर उन्हें पूछते कि तू कौन है ? क्यों खड़ा है ? ध्यानमग्न भगवान् की ओर से उत्तर न मिलने पर वे लोग क्रोध से भर जाते और मारने लगते परन्तु वे योगीश्वर प्रतिशोध का विचार तक न करते हुए समाधि में लीन रहते। जब भगवान् चिन्तन-मनन में लीन होते। उस समय कोई पूछता कि यहाँ कौन खड़ा है ? तो भगवान् (ध्यान में न होते तो) उत्तर देते कि "अहमसि ति भिक्खु"-मैं भिक्षु हूँ। ऐसा कहने पर यदि वह क्रोध से भरा हुआ उस स्थान को छोड़ने के लिए कहता तो भगवान् वहां से चल देते थे। अथवा (जाने का अवसर न होने पर) उस गृहस्थ के कुपित होने पर भी भगवान् मौन रहकर, यहां प्रधान आचार है, ऐसा मानकर सब कुछ सहन करने के लिए तैयार होकर ध्यान-लीन हो जाते थे।
शिशिर ऋतु में भी संयमेश्वर भगवान् इच्छा रहित होकर किसी वृक्षादि के नीचे रहकर शीत सहन करते थे। किसी समय अत्यधिक शीत हो तो मात्र रात्रि में बाहर रहकर समभाव से अन्दर आकर ध्यानस्थ होकर शीतस्पर्श सहन करते थे।
वे दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर दुर्गम्य लाट देश के वज्रभूमि और शुभ्रभूमि नाम के दोनों विभाग में विचरे थे। परीषह विजेता परमात्मा
क्रम पूर्वक संयम मार्ग में यथोक्त प्रवृत्ति करते हुए अरिहंत परमात्मा तदनुरूप गुणस्थानों पर आरोहण करते हैं। साधना की इस सम्यक् प्रवृत्ति में आने वाले परीषहों को यथोचित सहते रहते हैं। परीषह कुल बाईस हैं :(१) क्षुधा (८) स्त्री
(१५) अलाभ (२) तृषा (९) चर्या
(१६) तृणस्पर्श , (३) शीत (१०) निषधा
(१७) रोग (४) उष्ण (११) शय्या . (१८) मल (५) दंशमशक (१२) आक्रोश
(१९) सत्कार पुरस्कार (६) नाग्न्य (१३) वध
(२०) प्रज्ञा (७) अरति (१४) याचना
(२१) अज्ञान
(२२) अदर्शन। इन परीषहों में प्रमत्तसंयत आदिं बादर सम्पराय तक के गुणस्थान के साधक को ज्ञानावरणादि समस्त निमित्तों के विद्यमान रहने से विद्यमान सभी परीषह होते हैं। .
सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान वाले, छद्मस्थ वीतरागी के उपशांतमोहनीय नामक ग्यारहवें गुणस्थान वाले और क्षीणमोहनीय नामक बारहवें गुणस्थान वालों को १४ परिषह होते हैं। वे ये हैं