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________________ प्रव्रज्या-कल्याणक १७३ ......................................................... पुराने कुल्माष (कुल्थी-कल्थी) बुक्कस और पुलाक जैसा नीरस भोजन मिलता है तो कभी परमान्न जैसा सरस भोजन। परंतु इन दोनों प्रकारों में उनकी मानसिक समता विखंडित नहीं होती है। श्रमण भगवान् महावीर के लिए आचारांग सूत्र के अन्तर्गत भगवान् के रुक्ष आहार एवं निर्जल तप को महत्व देते हुए कहा है कि श्रमण भगवान महावीर ग्रीष्म ऋतु में उत्कट आसन से सूर्य के सन्मुख होकर आतापना लेते थे और रुक्ष आहार, बेर का चूर्ण एवं उड़द के बाकुले का आहार करते थे। उनका यह प्रयोग वर्षों तक चला। दधि आदि से मिश्रित आहार, शुष्क आहार, बासी आहार, पुराने कुल्माष और पुराने धान्य का बना हुआ आहार, जौ का बना हुआ आहार तथा सुन्दर आहार के मिलने या न मिलने पर संयमयुक्त भगवान किसी प्रकार का रागद्वेष नहीं करते हैं। अरिहंत की विहार चर्या तीर्थंकरों की.कोई भी . क्रिया छहकायजीवों की सुरक्षा सहित होती है। अतः विहारचर्या भी समिति एवं गुप्ति से युक्त होती है। वे पुरुष प्रमाण आदि से संकड़े और अग्र विस्तीर्ण मार्ग को आँख से देखते हुए अर्थात् युग परिमित भूमि का अवलोकन करते हुए ईर्यासमिति में ध्यान देकर चलते हैं। श्रमण भगवान् महावीर की विहारचर्या का एक महत्वपूर्ण अवलोकन हम आचारांग सूत्र के अन्तर्गत कर सकते हैं। जब श्रमण भगवान विहार करते थे तब अप्रतिबद्ध विहारी वे भगवान् युग प्रमाण मार्ग का अवलोकन करते हुए यल पूर्वक चलते थे। वे न इधर-उधर देखते थे और न पीछे की ओर देखते थे। किसी के पूछने पर उत्तर नहीं देते और मौन रहते थे। __विहार करते हुए भगवान् स्थान के लिये किसी प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं रखते हैं। विहार करते-करते जहाँ चरम पौरुषी का समय आता वहीं रात्रि व्यतीत करते हैं। वे गाँव में एक रात्रि और शहर में पांच रात्रि रहते हैं। कभी भींतवाले खाली घरों में, सभाओं में (विश्रांति गृहों में), पानी की प्याऊ में, दुकानों में, कभी लुहार की शाला में, घास के बने हुए मंचों के नीचे निवास करते हैं। कभी ग्राम के बाहर बने हुए मकानों में तो कभी नगर में निवास करते हैं। कभी खंडहरों में, श्मशान में और कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते हैं। इस प्रकार भगवान् साधना की सुरक्षा करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हैं और योग्य स्थानों में स्वयं को समायोजित कर संयम में अनुष्ठित रहते हैं। उनकी ध्यान साधना के लिए कोई निर्धारित समय नहीं रहता है। कभी दिन में तो कभी रात में भी करते हैं। वे कभी निर्जनस्थान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते। उस समय चोर, जार या अन्य
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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