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कल्याणक
जैन शास्त्रों में तीर्थंकरों की पाँच घटनाओं को प्रधान घटनाएँ बताया गया है, और उन घटनाओं को कल्याणक कहा है। क्योंकि ये अवसर जगत् के लिए अत्यंत कल्याण व मंगलकारी होते हैं। अरिहंत परमात्मा का इस धरती पर आना, जन्म ग्रहण करना, दीक्षा लेना, केवलज्ञान प्राप्त करना और निर्वाण होना-ये पाँचों ही प्रसंग तीनों ही लोक के जीव-प्राणियों के लिए कल्याणकारक ही होते हैं। उनका परकल्याण में स्वकल्याण समाविष्ट होता है। लोकोत्तर अवस्था को प्राप्त अरिहंत परमात्मा की ये बहुत महत्वपूर्ण सर्वोपरि अवस्थाएँ हैं।
कल्याण स्वरूप लोकोत्तर उपलब्धि के साथ कल्याणक से लौकिक आनंद भी उपलब्ध होता है। इसीलिए कहा है कि
- नारकाणमपि मोदन्ते यस्य कल्याणपर्वसु अरिहंत के कल्याण-पर्व पर (सर्व कल्याणक अवसर पर) नरक के जीवों को भी आनंद की उपलब्धि होती है। च्यवन - च्यवन यह तीर्थंकरों के गर्भागमन का दूसरा नाम है। अरिहंत परमात्मा के लिये यह वह बेला है जिसमें वे समस्त कर्म-लीलाओं को समाप्त करने के लिए अपने अंतिम भव के देह रूप का प्रत्यक्ष सद्भाव पाते हैं।
हजारों वर्षों से तीर्थंकर के अभाव से व्यग्र, व्यथित भव्यात्माओं के पुण्य-प्रभाव की इस परिणाममयी बेला में इन मुक्ति के मार्गदाता का उद्भव होता है। उद्भव के अप्रत्यक्ष भाव से अभाव टूटता है, प्रभाव प्रकट होता है। च्यवन तो कई आत्माओं का होता है, पर परमात्मा का च्यवन ही कल्याणकरूप माना जाता है। च्यवन से ही इनका परमात्मत्व पृथ्वी लोक पर अपूर्व प्रतिभा झलका देता है।
मुक्ति के महापथ की उपलब्धि में अपूर्व प्रवेश। “सर्व जीव करूँ शासन रसिक" की भावना को सफल करने की प्रयोगशाला में प्रथम प्रवेश है च्यवन। अनेकों जीवों पर अनुग्रह कर उनके उद्धार एवं निस्तार पूर्ण उत्सुकता का सफल प्रवेश द्वार यह च्यवन है। कैवल्य प्राप्ति में प्रवेश-पत्र प्राप्त कराने वाले इस अन्तिम भव की, लक्ष्य सिद्धि की यह समुद्भव-बेला अत्यंत पुण्यमयी होती है। इसी कारण सारे संसार के अंधकार का क्षणभर में विनाश हो जाता है। सर्वलोक में सभी जीवों को उद्योत तथा प्रसन्नता की अनुभूति होती है। मानवीय गर्भ-प्रवेश से इसका मूल्यांकन नहीं होता। यह