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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ३७ संतुलित आहार से मतलब है जिस व्यक्ति को जितनी आवश्यकता हो उतना ही आहार ग्रहण करे। आहार संज्ञा और आहार की आवश्यकता में बहुत अंतर है। आवश्यकता कम हो और संज्ञा तीव्र हो तब व्यक्ति आवश्यकता से अधिक आहार ग्रहण करता है। वर्तमान युग में कैलोरी चार्ट द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की ऊँचाई
और वजन के अनुसार आहार का प्रमाण निश्चित किया जाता है। परमात्मा ने इसे ऊनोदरी तप के द्वारा नियंत्रित कर आवश्यकता से भी कम लेने से शरीर की सुनियंत्रण व्यवस्था और स्वस्थता का विधान प्रस्तुत किया है।
वृत्ति को संक्षिप्त रखना वृत्ति संक्षय है। वृत्ति को अनियंत्रित या व्यापक रखने से आहार संज्ञा उत्तेजित होती है। इसके उत्तेजित होने से खाने की व्यवस्था हमारा जैविक कार्य न होकर रसों को ग्रहण करने की और उत्तेजित करने की होती है। वृत्ति को व्यापक रखकर आहार प्रमाण संक्षिप्त नहीं हो सकता है।
रस परित्याग-रस में मूर्छा रखकर आहार ग्रहण करने के लिए आहार के पदार्थ की वास्तविक ऊर्जा की अपेक्षा उसमें रहे पदार्थ की रासायनिकता से अधिक महत्त्व दिया जाएगा।
इन बातों का रहस्य न समझने से यह कितनी अजीब शिक्षा लगती है कि क्या खाने-चबाने में भी कोई आदेश, आग्रह या आज्ञा आवश्यक है? विज्ञान के सामने यह बात आने पर उन्होंने सोचा अरिहंतों के कथन में कोई न कोई राज छिपा होता है। इसी बात को आधार बनाकर विज्ञान ने एक खोज संसार के सामने प्रस्तुत की; जो परमात्मा के प्रस्तुतं कथन की महत्वपूर्ण पुष्टि बन गयी। ___ मुँह के भीतर रही जीभ मांसपेशियों से बनी हुई होती है। इसकी रचना आगे की ओर पतली और पीछे की ओर चौड़ी तथा लाल रंग वाली होती है।
जीभ Tongue
Bitter इसकी ऊपरी सतह पर कोशिकाओं से बनी स्वादकलिकाएँ होती हैं जो कुछ दानेदार उभार रूप में दिखाई देती हैं। इनके ऊपरी सिरे से बाल के समान तन्तु निकले होते हैं।
। ये स्वाद-कलिकाएँ चार प्रकार की होती हैं। जिनके द्वारा हमें चार प्रकार के मुख्य स्वादों का पता चलता है। खट्टा (Sour), मीठा (Sweet), कडुवा (Bitter) और
Sweet नमकीन (Salt) | जीभ के आगे
Sour