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आराधक से आराध्य ९९ गुणश्रेणी
गुणश्रेणी का विवेचन करते हुए कहा है कि-उदयक्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे कर्म दलिकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं। पूर्वोक्त सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि गुण वाले जीव क्रमशः असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं।' अपूर्व गुणसंक्रम
गुण संक्रम प्रदेश संक्रम का एक भेद है। इसमें प्रति समय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणीत क्रम से अबध्यमान अनन्तानुबन्धी आदि अशुभ प्रकृतियों के कर्म दलिकों का उस समय बँधने वाली सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण होता है। अनिवृत्तिकरण ___ अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति का अभाव। निवृत्ति के कई अर्थ होते हैं। प्रसिद्ध दोनों अर्थ.इस प्रकार हैं
१-निवृत्ति याने. व्यावृत्ति अर्थात् वापस लौटना और २-निवृत्ति अर्थात् वैषम्य।
गुणस्थान क्रमारोह में अनिवृत्ति को समझाने के लिए प्रथम व्याख्या का प्रयोग करते हुए कहा है-निवृत्ति अर्थात् वापस लौटना। देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए इत्यादि अनेक विषयादि रूप संकल्प-विकल्प रहित निश्चल रूप से केवल परमात्म रूप में ही एकाग्रध्यान परिणति रूप अध्यवसायों की अनिवृत्ति अर्थात् अध्यवसायों का पुनः विषय सन्मुख नहीं होना अनिवृत्तिकरण है। ____तत्त्वार्थ राजवार्तिक में अनिवृत्ति का अर्थ किया है-जीवों के परिणाम प्रथम समय में समान और परस्पर एक रूप होते हैं, द्वितीय समय में उससे अनन्तगुणे विशुद्ध होकर
भी एक रूप ही रहते हैं। इस तरह अनन्तकाल तक उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम होते हैं। • इन सबका समुदाय अनिवृत्तिकरण है। परस्पर निवृत्ति भेद न होने से इस करण को
अनिवृत्तिकरण कहते हैं। - अनिवृत्तिकरण के जितने समय हैं उतने ही इसके परिणाम होते हैं। विशेषता यह है कि इसके प्रथमादि समय में जो विशुद्धि होती है, द्वितीयादि समय में वह उत्तरोत्तर अनंतगुणी होती है। अपूर्वकरण के स्थितिघात आदि चारों कार्य अनिवृत्तिकरण में भी चालू रहते हैं।
दर्शन सम्यक्त्व के विभिन्न प्रकार एक प्रकार
१-तत्त्वों के प्रति सम्यक् रुचि यह दर्शन का एक प्रकार है। इसीलिए स्थानांग सूत्र
दशन सन्
१. कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ८३ । २. गुणस्थान क्रमारोह-सटीक गाथा ३८ की वृत्ति, पंत्र-२९ ।।