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१०० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम में “रागे दसणे" कहा है। जिसके द्वारा, जिससे अथवा जिसमें श्रद्धा होती है उसे दर्शन कहते हैं।
२-दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्रकट गुण दर्शन है।
३-दर्शनमोहनीय कमों के क्षयादि द्वारा प्रकटित तत्वों के श्रद्धान रूप आत्मा का परिणाम विशेष दर्शन है। दो प्रकार
स्थानांग सूत्र के अन्तर्गत दर्शन के दो प्रकार बताये हैं-सम्यग्दर्शन और . मिथ्यादर्शन। इनके भी परस्पर अनेक भेदानुभेद हैं-१-निसर्ग सम्यग् दर्शन और २अधिगम सम्यग् दर्शन। निसर्ग और अधिगम इन दोनों सम्यग्दर्शनों के प्रतिपाति और अप्रतिपाति ऐसे दो-दो भेद हैं।
निश्चय या नैश्चयिक सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व ऐसे सम्यक्त्व के अन्य भी . दो प्रकार हैं। द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्य के दो प्रकार हैं। वीतराग सर्वज्ञ-जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित तत्वों का परमार्थ जाने बिना ही उसे सत्य मानकर श्रद्धा रखना “द्रव्य-सम्यक्त्व" कहा जाता है। जीवादि नवतत्व, नय, निक्षेप, स्याद्वाद आदि तत्त्वों को समझने से एवं तदनुसार वर्तन करने से. जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह "भाव सम्यक्त्व" है।
पौद्गलिक सम्यक्त्व और अपौद्गलिक सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं। श्रीमद् राजचंद्रजी ने गाढ़ अथवा अवगाढ़ सम्यक्त्व और परमावगाढ़ सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्व के दो प्रकार दर्शाये हैं।
गाढ़ और अवगाढ़ दोनों एक ही हैं। तीर्थंकरादि को गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी गाढ़ अथवा अवगाढ़ सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व जीव. को चौथे गुणस्थान में होता है। क्षायिक सम्यक्त्व अथवा गाढ़ या अवगाढ़ एक समान ही है। परमावगाढ़ केचलियों को ही होता है। अवगाढ़ यानी दृढ़, परमावगाढ़ यानी अत्यधिक दृढ़।।
श्रीमद् राजचन्द्र ने इन सम्यक्त्वों का उल्लेख करते हुए कहा है कि "श्री यशोविजयजी ने आठवीं परादृष्टि में कहा है कि जहाँ केवलज्ञान होता है वहीं परमावगाढ़ सम्यक्त्व संभव हो सकता है। उनके इस कथन के अनुसार सम्यक्त्व के इस विशेष नाम का प्रयोग प्रस्तुत. दृष्टि में कहीं भी उपलब्ध नहीं है सिर्फ केवलज्ञान के वर्णन के समय आठवीं दृष्टि में ही "परं परार्थ"२ शब्द का प्रयोग जरूर प्राप्त होता है। संभव है इसी शब्द को श्रीमद्जी ने परमावगाढ सम्यक्त्व से प्रयुक्त किया हो। १. श्रीमद् राजचन्द्र (अगास से प्रकाशित) पृ. १७८ अनुक्रम नं. ९५९, समाधान क्रमांक ९r २. योगदृष्टि समुच्चय-श्लोक-१५५ ।