________________
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
जन्म-कल्याणक १५५ क्षीरोदक समुद्र का जल क्षीर जैसा है अतः कहीं पर क्षीर शब्द का और कहीं "तोय" शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु दोनों से क्षीरोदक का ही अर्थ समझना चाहिए। __ यह रूप वृषभ का ही क्यों लेते हैं ? चार रूप, आठ श्रृंग एवं अष्ट धाराओं से क्या मतलब है? इन प्रश्नों के समाधान भिन्न-भिन्न आचार्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से दिये हैं। तीर्थंकर साक्षात् धर्म स्वरूप हैं-ऐसा धर्म-दान, शील, तप एवं भाव रूप भेद से चार प्रकार का है, परमात्मा अरिहंत ऐसे धर्म के दाता हैं, देशक हैं, नाथ हैं, सारथी हैं तथा श्रेष्ठ चतुरन्त चक्रवर्ती हैं।
पानी को अष्ट धाराओं से प्रवाहित कर इन्द्र ऐसा संतोष मानता है मानों आठों दिशाओं के स्वामी परमात्मा को यश की भेंट चढ़ा रहे हों। आगम के अतिरिक्त प्रायः अन्य सर्व ग्रन्थकर्ताओं के अनुसार स्तुति, धूपदान, पूजन, अर्चन एवं अष्ट मंगल का आलेखन इन्द्र द्वारा स्नान महोत्सव के सम्पन्न होने के बाद का है।
शीलांकाचार्य के अनुसार अभिषेक के पश्चात इन्द्राणी सुवासित पदार्थों द्वारा जिनेश्वर को विलेपन करती है, वस्त्रालंकार पहनाती है, एवं परमात्मा के सौन्दर्य की प्रशंसा करती हुई उनकी स्तुति करती है। __ सौधर्मेन्द्र अपने पाँच रूप विकुर्वित कर अरिहंत को ग्रहण कर दिव्यगति से माता के पास पहुँचते हैं, तीर्थंकर के प्रतिरूप एवं अवस्वापिनी निद्रा का संहरण कर अरिहंत भगवान को माता के पास रखते हैं। परमात्मा को दिव्य वस्तुओं की सौगात ___अरिहंत भगवान को यथास्थान रखकर सौधर्मेन्द्र, दिव्यवस्त्र देवदूष्य-युगल एवं कुण्डल-युगल, उच्छीर्षक उपधान (तकिया) के नीचे रखते हैं और सुशोभित ऐसा श्रीदाम काण्ड नामक कंदुक उनके पास रखकर वहाँ से लौट जाते हैं। दिव्य वृष्टि ___ तत्पश्चात इन्द्र की आज्ञा से वैश्रमण देव ने जृम्भक देवों द्वारा बत्तीस करोड़ हिरण्य, बत्तीस करोड़ सुवर्ण, सैंतीस करोड़ रत्न, बत्तीस करोड़ नंद नामक वृत्तासन, बत्तीस करोड़ भद्रासन, तथा अन्य विशिष्ट वस्तुओं से तीर्थंकर के भवन को भरवाते हैं। आचारांग में जन्माभिषेक के पूर्व भी देव देवियों द्वारा अमृत, सुगन्धित पदार्थ, चूर्ण, पुष्प, रजत, स्वर्ण एवं रत्नों की बहुत भारी वर्षा होने का उल्लेख है।
शीलांकाचार्य के अनुसार देव स्वयं रनों की वृष्टि करते हैं। वृष्टि के पश्चात शक्र देवेन्द्र आभियोगिक देवों को बुलाकर कहते हैं-अहो देवानुप्रियो ! भगवान तीर्थंकर के जन्म नगर में महापथ में बड़े-बड़े शब्द उद्घोषणा करके ऐसा बोलो-“अहो भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देव देवियाँ सुनो कि जो कोई तीर्थंकर भगवान तथा