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१०४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
५-उपगूहन-आचार्य-उपाध्याय-तपस्वी-ग्लान-कुल-गण-संघादि की आहार-पानीवस्त्र-पात्र-शय्या-संस्तारक-औषध-भेषजादि द्वारा प्रशंसा करना उपगूहन है।
दूसरी तरह से रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है। यदि अज्ञानी अथवा असमर्थ लोगों के निमित्त से उसकी वाच्यता-निंदा हो तो उसका प्रमार्जन-निराकरण अथवा आच्छादन करना उपगूहन है।
तीसरी तरह से आत्मा की शुद्धि में दुर्बलता नहीं आने देना या उसकी पुष्टि करना तथा आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप भाव से च्युत नहीं होने देना उपगूहन है।
६-स्थिरीकरण-जो श्रमण संयम पालन में अस्थिर हो जाता है, स्थिरीकरण द्वारा उन्हें पुनः उसमें स्थिर किया जाता है।
अपनी आत्मा को आत्मस्थिति में स्थिर करना स्वस्थिरीकरण है और अन्य की आत्मा को आत्मस्थिति में स्थिर करना परस्थिरीकरण है।
७-वात्सल्य-जैसे माँ को बच्चे के प्रति स्नेह होता है वैसा जगत के समस्त जीवों के प्रति वत्सलभाव रखना वात्सल्य है।
८-प्रभावना-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना और अज्ञान रूप अन्धकार को दूर कर जिनशासन के माहास्य को प्रकाशित करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शन के लक्षण
लक्षण अर्थात् जिसके द्वारा उस वस्तु को पहचाना जाय जैसे धूम के द्वारा अग्नि को पहचाना जाता है वैसे ही यहाँ कुछ ऐसे विशिष्ट लक्षणों को दर्शाया जाता है जिससे साधक में उपलब्ध सम्यक्त्व के अस्तित्व का बोध हो सके। यद्यपि सम्यक्त्व
आत्मा के शुभ परिणाम रूप है, हम देख सकें वैसा नहीं है फिर भी ये लक्षणं उपचार से सम्यक्त्व के अस्तित्व द्योतक माने गये हैं।
इसके पाँच प्रकार हैं१-शम-प्रशम-उपशम, २-संवेग, ३-निर्वेद, ४-अनुकंपा और ५-आस्तिक्य
१-शम-प्रशम-उपशम-सम्यक्त्व सप्तति में हरिभद्र-सूरि ने इसे उपशम कहा है, नवतत्त्व प्रकरण की टीका में अभयदेव सूरि ने इसे प्रशम कहा है और योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने इसे शम कहा हैं। इसकी तीन अलग-अलग व्याख्यायें होती हैं
१-अनन्तानुबन्धी कषायों का अनुदय, २-तत्त्वों के प्रति अप्रीति और अतत्त्वों के प्रति राग का अभाव, ३-क्रोध और विषय तृष्णा का उपशमन।