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________________ आराधक से आराध्य १०३ ९-संक्षेपरुचि-जो निर्ग्रन्थ प्रवचन में अकुशल है, मिथ्याप्रवचनों से अनजान है परन्त कदष्टि का आग्रह न होने से अल्पबोध से ही जो तत्त्वश्रद्धा होती है वह संक्षेपरुचि है। जैसे मात्र "उपशम-संवर-विवेक" तीन पद सुनते ही जैन तत्त्व-ज्ञान न होने पर भी चिलातिपुत्र को उनमें रुचि हो गई। इस प्रकार बिना विशिष्ट ज्ञान के भी जो मोक्ष-तत्त्व की रुचि होती है, वह संक्षेपरुचि है। १०-धर्मरुचि-जिनकथित अस्तिकाय धर्म (धर्मास्तिकायादि अस्तिकायों का गुण स्वभाव धर्म) में, श्रुतधर्म में और चारित्र धर्म में श्रद्धारूप रुचि का प्रकट होना धर्मरुचि है। यही दश सम्यक्त्व आत्मानुशासन में कुछ विभिन्नता के साथ दर्शाये गये हैं। यहाँ रुचि या सम्यक्त्व शब्द का प्रयोग न करते हुए समुद्भव शब्द का प्रयोग किया है। १-आज्ञा समुभव २-मार्ग समुद्भव ३-उपदेश समुद्भव . ४-सूत्र समुद्भव ५-बीज समुद्भव ६-संक्षेप समुद्भव ७-विस्तार समुद्भव ८-अर्थ समुद्भव ९-अवगाढ़ १०-परमावगाढ़ दर्शन का अधिकारी आगम में दर्शन के आठ अंग एवं आठ आचार कहे हैं। इन आठ आचार का जो पालक होता है, वहीं इस सम्यग्दर्शन का अधिकारी होता है। सम्यग्दर्शन के आठ आचार इस प्रकार हैं १-निःशंकता-इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अपयश, अरक्षण, और आकिस्मक इन सात भयों से मुक्त रहना अथवा जिनोपदिष्ट तत्त्व में यह है या नहीं इस प्रकार की शंका नहीं करना निःशंकता है। २-निष्कांक्षता-व्रतादिक क्रियाओं को करते हुए उनमें परभव के लिए भोगों की अभिलाषा करना, कर्म और कर्म के फल में आत्मीय भाव रखना और अन्य दृष्टि की प्रशंसा करना कांक्षा है। इस कांक्षा से रहित हो जाना निष्कांक्षता है। - ३-निर्विचिकित्सा-अपने उत्कर्ष की प्रशंसा करना और दूसरों का अपकर्ष चाहना चिकित्सा है। इससे जो रहित है वह निर्विचिकित्सा है। ___४-अमूढदृष्टि-मूढ़ता का परिहार करना अमूढ़दृष्टि है। विद्या-मंत्र की सिद्धि से अज्ञानी लोगों को आश्चर्य हो वैसे कार्य करने वाले बाल तपस्वियों के तप, विद्या आदि के प्रति सम्मान का भाव न रखना, उनको सत्य न समझना, उनसे सम्पर्क न रखना और उनकी प्रशंसा न करना अमूढ़ता है। १. आत्मानुशासनम्-श्लोक-११ ।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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