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________________ ...................................................... १०२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख व अन्तराल कालावर्ती जीव, जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता तब तक के उसके परिणाम विशेष को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व को प्राप्त कर जीव जब उसका (सम्यक्त्व का) वमन कर देता है। उस वमन के समय रहे सम्यक्त्व के स्वाद की स्थिति के परिणाम विशेष में यह सम्यक्त्व होता है। सास्वादन से मतलब है जिसका आस्वादन मात्र रह गया है। जैसे छाछ में से मक्खन निकालकर पुनः उसी में (छाछ में) डाल दिया जाय तो .. छाछ में वह एकदम मिलकर पूर्ववत् नहीं होता, वह अलग ही रहेगा वैसे ही सास्वादन . में आने वाले का मिथ्यात्व उतना घनिष्ठ नहीं होता। पाँच प्रकार के सम्यक्त्व पूर्वोक्त दर्शाये गये चारों प्रकार के सम्यक्त्व में अर्थात् क्षायिक, औपशमिक,... क्षायोपशमिक और सास्वादन इन चार में एक वेदन सम्यक्त्व मिलाने पर सम्यक्त्व के . : पाँच प्रकार बनते हैं। ___ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में वर्तमान जीव, जब सम्यक्त्व मोहनीय के अन्तिम पुद्गल . के रस का अनुभव करता है, उस समय के उसके परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। वेदक सम्यक्त्व के बाद क्षायिक सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है। दश प्रकार स्थानांग सूत्र के अन्तर्गत सरागी जीवों के दश प्रकार के सम्यग्दर्शन बताये हैं१-निसर्गरुचि-तत्त्वों के प्रति स्वाभाविक रुचि। २-उपदेशरुचि-गुरु के उपदेश से उद्भूत जीवादि भावों में श्रद्धा तथा रुचि रखना "उपदेश रुचि" है। ३-आज्ञारुचि-गुरु की आज्ञा में रुचि रखना आज्ञारुचि है। ४-सूत्ररुचि-सूत्र से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे सूत्ररुचि कहते हैं। . ५-बीजरुचि-जीवादि कोई एक तत्त्व के अनुसन्धान से अनेक तत्त्वों में और उनके अर्थों में उत्तरोत्तर श्रद्धा का विस्तार होता है। एक देश में उद्भूत रुचि से अनेक तत्त्वों में रुचि उत्पन्न होती है। जैसे एक बीज अनेक बीजों को उत्पन्न करता है वैसे बीजरुचि द्वारा एक व्यक्ति से अनेक व्यक्ति में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। ६-अभिगमरुचि-आगमों को अर्थपूर्वक जानना और तत्त्वों के प्रति रुचि अभिगम रुचि है। ७-विस्ताररुचि-विस्तार अर्थात् प्रसार। जिससे धर्मास्तिकायादि समग्र द्रव्यों के सर्व पर्यायों, सर्व नयों और प्रमाणों द्वारा जान लिया जाता है, वह विस्ताररुचि है। -क्रियारुचि-दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में भाव से जो रुचि होती है, वह क्रियारुचि है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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