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________________ आराधक से आराध्य १०५ ., स्वाभाविक या कर्मों के अशुभविपाकों (दुष्ट फल) को जानकर कषायादि का उपशम होता है। इस उपशम से जीव अपराधी पर भी क्रोध नहीं करता है। महत अपराधी पर ताड़नादि का भी अवसर आ जाय तो भी क्रोध का अनुदय रखना शम-प्रशम या उपशम है। ... २-संवेग-संवेग अर्थात् मोक्ष की अभिलाषा।. ३-निर्वेद-संसार से वैराग्य होना निर्वेद है। मोक्ष की अभिलाषा को संवेग और संसार से विरक्तिभाव को निर्वेद कहते हैं। ४-अनुकंपा-दुखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकम्पा है। .५-आस्तिक्य-तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं-जिनेश्वर द्वारा जो प्रवोदित (कथित) है वह सत्य है, निःशंक है। इस प्रकार की जो दृढ़ श्रद्धा है वह आस्तिक्य. है। दर्शन स्थान . जिसमें दर्शन स्थिर होता है वह दर्शन स्थानक है उसके छह प्रकार हैं-१-आत्मा है, २-आत्मा नित्य है, ३-आत्मा कर्ता है, ४-आत्मा भोक्ता है, ५-आत्मा का मोक्ष हो सकता है और ६-मुक्ति के उपाय हैं। __आत्मा है-आत्मा, जिसमें चेतना रूप निशानी देखने में आवे। दूध और पानी जैसे एक-दूसरे में मिल जायें वैसे आत्मा और पुद्गल-शरीर एक दूसरे में मिल जायँमिश्र हो जायँ फिर भी. आत्मा पुद्गल से अलग ही है। जैसे पनीर बनाकर दूध-पानी अलग किये जाते हैं वैसे दर्शन द्वारा आत्मा और कर्म अलग किये जाते हैं। ___आत्मा नित्य है-जो पदार्थ, पदार्थ रूप से सत् होते हैं उनका किसी काल में सर्वथा अभावरूप नाश होता ही नहीं है। आत्मा भी (द्रव्य-गुण-पर्यायरूप) सत् पदार्थ है। अतः वह नित्य-शाश्वत है। ..आत्मा कर्ता है-मिथ्यात्व, अविरति, कषायादि-कर्मबन्ध के कारणों से युक्त आत्मा स्वयं उन कर्मों द्वारा उन-उन कर्मों को उपजाता है, बाँधता है। जगत में प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुखों की अनुभूति करते हैं। ये सुख-दुख किसी के देने लेने से नहीं होते हैं। . आत्मा भोक्ता है-आत्मा ही पुण्य और पापों के फलों का भोक्ता है। आत्मा का मोक्ष होता है-दीपक के बुझ जाने पर अग्नि का सर्वथा नाश नहीं होता है परन्तु वे अग्नि तेजस्-पुद्गल रूपान्तरित होकर श्याम हो जाते हैं, अतः हमें प्रकाश की जगह अंधकार की प्रतीति होती है। वैसे ही आत्मा का जब कर्मरूप तेल सर्वथा समाप्त हो जाता है तो आत्मा अपनी अरूपी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। आत्मा की कर्ममुक्त-सत्-अक्षय-निज-अरूपी अवस्था ही मोक्ष है। बंधनों से छूट जाने पर कैदी कैदखाने से मुक्त हो जाता है, समाप्त नहीं होता है। जैसे-रोगों का नाश होने पर
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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