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आराधक से आराध्य ७७
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जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्वरचित विशेषणवती' में इसका वर्णन करते हुए लिखा है-तीर्थंकर नामकर्म की स्थिति कोटाकोटि सागर प्रमाण है, और तीर्थंकर के भव से पहले के तीसरे भव में उसका बन्ध होता है। इसका आशय यह है कि तीसरे भव में उद्वर्तन-अपवर्तन द्वारा उस स्थिति को तीन भवों के योग्य कर लिया जाता है। अर्थात् तीन भवों में तो कोटाकोटि सागर की स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती, अतः अपवर्तनकरण के द्वारा उस स्थिति का ह्रास कर दिया जाता है। शास्त्रकारों ने तीसरे भव में जो तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का विधान बताया है, वह निकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिए है, निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य देती है। किन्तु अनिकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिए कोई नियम नहीं है, वह तीसरे भव से पहले भी बंध सकती है। ___ जिस प्रकृति में कोई भी करण नहीं लग सकता, उसे निकाचित कहते हैं। स्थिति और अनुभाग को बढ़ाने को उद्वर्तन कहते हैं और स्थिति वं अनुभाग को कम करने को अपवर्तन कहते हैं। ___ तीर्थंकर नामगोत्र कर्म के लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में "तीर्थंकरत्व" और "तीर्थंकर नामगोत्र कर्म" ये दोनों शब्द पाये जाते हैं जैसे
स्थानांगसूत्र में तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म-शब्द का प्रयोग इस प्रकार है-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवेहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे णिव्वतितेअर्थात् श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ आत्माओं ने तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का बंध किया। इसकी टीका में कहा है तीर्थकरत्व के कारणभूत नामकर्म को तीर्थकरनामगोत्र कर्म कहा जाता है। अथवा, तीर्थकर यह जिस कर्म का गोत्र अर्थात् नाम है वह "तीर्थकरनामगोत्रकर्म" कहा जाता है। नायाधम्मकहा में कहा है-"तित्थयरत्तं लहइ जीवो" यहाँ तीर्थंकरनामगोत्र कर्म के स्थान पर तीर्थकरत्व शब्द का प्रयोग किया गया है।
षट्खंडागम में बंधसामित्त विचय३ के अन्तर्गत "तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहिं जीवा तित्थयरणामगोदकम्मं बंधंति"-इस वाक्य में स्थानांग सूत्र की तरह "तीर्थंकरनामगोत्रकर्म" शब्द का ही प्रयोग किया है। धवलाटीकाकार कहते हैं-तीर्थकर प्रकृति नामकर्म एक भेद है फिर उसमें उसे गोत्र संज्ञा इसलिए प्राप्त हो सकती है कि उच्च गोत्र के बंध का यहाँ अविनाभावी संबंध है। . इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में तीर्थंकर, तीर्थकरनामगोत्र और तीर्थंकरत्व तीनों शब्द पाये जाते हैं। दोनों संप्रदायों के उत्तरवर्ती १. गाथा-७0 से ८०. २. स्थानांग सूत्र-सटीक, स्था. ९, उद्देशक-३, सूत्र-६२१-पत्र ४५५. ३. छक्खंडागमो-धवलाटीका सहित तृतीय खंड, बंधस्वामित्व विचय, सूत्र ४0, पृ. ७८.
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