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च्यवन कल्याणक १३१
च्यवन से पूर्व देवलोक में अरिहंत परमात्मा की स्थिति अन्य देवों की अपेक्षा विलक्षण होती है। भावी जन्म में अरिहन्त बनने वाले देव आर्हन्त्य के विशिष्ट प्रभाव से अंतिम समय तक अधिक कान्तिमय एवं प्रसन्न होते हैं। अन्य देव च्यवन के भय से भयभीत होकर छः मास पूर्व ही फूल की भाँति मुझ जाते हैं, म्लान हो जाते हैं, परन्तु अरिहंत बनने वाले देवों में ऐसा नहीं होता है। अन्य देवों की भाँति च्यवन के विशेष चिन्ह भी इनमें नहीं पाये जाते हैं।
नरक में भी अन्य जीवों की अपेक्षा अरिहंत को अल्प पीड़ा होती है। उच्चकुल की प्रधानता
अरिहंत अन्त्यकुल में, प्रांतकुल में, अधमकुल , तुच्छकुल में, दरिद्रकुल में, कृपणकुल में, भिक्षुक कुल में अथवा ब्राह्मण कुल में जन्म नहीं लेते हैं, परन्तु उग्रकुल में, भोगकुल में, राजकुल में, इक्ष्वाकु कुल में, क्षत्रिय कुल में, हरिवंश कुल में तथा वैसे प्रकार के अन्य उत्तम कुल वाले वंशों में जन्म लेते हैं।' ज्ञान समन्वितं च्यवन
च्यवन एवं जन्म के समय अरिहंत प्रभु मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान इन तीन ज्ञान से युक्त होते हैं। ..
अवधिज्ञान का प्रमाण सर्व अरिहंतों में समान नहीं होता, परन्तु प्रमाण का आधार उनके पूर्वजन्म के ज्ञान के प्रमाण पर निर्भर होता है। देव या नरक गति में जितने प्रमाणवाला अवधिज्ञान हो उसी प्रमाण में यहाँ अवधिज्ञान होता है। ज्ञान के प्रभाव से तीर्थंकर प्रभु “चइस्समितिजाणई, सुहुमेणं से काले पन्नते," अर्थात् “मेरा च्यवन होगा" . ऐसा जानते हैं, च्यवन के पश्चात् तुरन्त ही "मेरा च्यवन हो गया" ऐसा जानते हैं। ज्ञान के प्रभाव से अतीत अनागत के भावों को जानते हैं। परन्तु च्यवन का काल अतिअल्प होने से “मैं च्युत हो रहा हूँ" ऐसा नहीं जानते हैं। त्रैलोक्य में अपूर्व प्रभाव
अरिहंत के गर्भावास के प्रभाव से सर्वदिशाएँ अन्धकार रहित हो जाती हैं, तीनों लोक में बिजली की भाँति महाउद्योत होता है, एवं सर्व दिशाएँ झंझावात रजकण आदि से रहित होकर निर्मल हो जाती हैं। जिस नक्षत्र में च्यवन होता है उसी नक्षत्र में जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक होते हैं। .. तीनों जगत् में सुखकर्ता स्वामी के गर्भ में उत्पन्न होते ही त्रैलोक्य के प्राणियों के दुःखों का क्षणमात्र में नाश हो जाता है, और सर्व जीव सुख को प्राप्त होते हैं। च्यवन कल्याणक के प्रस्तुत स्वरूप से यह स्पष्ट होता है कि अरिहंत प्रभु के उपकार का प्रारम्भ उनके इस (मनुष्य) गति में प्रवेश करते ही हो जाता है। १. कल्पसूत्र-सूत्र १७.