________________
अरिहंत का तत्व - बोध १३
तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रह् धातु देने के ( त्याग के ) अर्थ से सम्बन्धित है। प्रकृष्ट राग तथा द्वेष के कारणभूत अनुक्रम से मनोहर और अमनोहर विषयों का संपर्क होने पर भी वीतरागत्व को, जो स्वयं का स्वभाव है, त्याग नहीं करने वाले अरहंत।
उपरोक्त अर्थ प्रतिपादन में दर्शित विभिन्नता - शब्द-सादृश्य या अर्थ-वैषम्य के कारण है।
अरिहन्त
अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रु को मथित कर देने से, नाश करने से, दलने से, पीलने से, भगाने से अथवा पराजित करने से परमात्मा अरिहंत कहलाते हैं, अर्थात् अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं । '
दूसरा अर्थ करते हुए नियुक्तिकार ने शत्रु अर्थ में न केवल कर्मों को ही प्रधानता दी है, परन्तु उपलक्षण से इन्द्रियविषय, कषाय, परीषह, वेदना, उपसर्गादि सर्व आभ्यतंर शत्रु भी ग्रहण किये हैं और उनका नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है। कर्मों का नाश करने से इन्द्रियविषयादि का नाश तो सहज ही समझा जा सकता है, उसके स्वतंत्र निर्देशन की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जिनके कर्मों का नाश हुआ माना जाता है उनमें इन्द्रियविषयादि कैसे पाये जा सकते हैं ? परन्तु निर्युक्तिकार अपनी पद्धति के अनुसार अरिहंत शब्द की व्याख्या में इतना विशेष कहते हैं । २
इससे आगे की गाथा में नियुक्तिकार " अरिहंत" शब्द की व्याख्या में तीनों स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-सुर, असुर, मनुष्यादि द्वारा की जाने वाली पूजा के अरिहा - योग्य, शत्रुओं का नाश करने वाले तथा कर्मरूप रज अर्थात् मैल का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं । ३
उपरोक्त तीनों व्याख्याओं में अरिहा - योग्यता अर्थ को प्रस्तुत करने वाली व्याख्या ही अधिक अर्थसंगत प्रतीत होती है, क्योंकि अष्ट प्रकार के कर्मों का क्षय तो सिद्धों के होता है, अरिहंत तो चार घातिकर्मों का क्षय किये हुए होते हैं। इन्द्रियविषय में, 'शातावेदनीय का उदय होने से वेदनादि का नाश भी उपयुक्त नहीं है।
षट्खंडागम के मंगलाचरण में " णमो अरिहंताणं" शब्द की वृत्ति में धवला टीकाकार "अरिहंत” शब्द के चार अर्थ प्रस्तुत करते हैं।
अरिहननादरिहन्ता–‘‘अरि" अर्थात् शत्रुओं के " हननाद् " अर्थात् नाश करने वाले। यहाँ पर "अरि" शब्द का विश्लेषण करते हुए मोह को शत्रु माना है। केवल
१. श्री महानिशीथ सूत्र ।
२. आवश्यक निर्युक्ति-गा. ९१९
३. आवश्यक निर्युक्ति-गा. ९२२