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________________ १४ अरिहंत-शब्द दर्शन मोह को शत्रु मान लेने पर शेष कर्मों के व्यापार की निष्फलता मानने की शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है समस्त कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतन्त्र समझे जायें। इसलिये सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं। मोह का नाश हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है इसलिए उनको मोह के अधीन कैसे माना जाय? इस शंका का समाधान करते हुए कहा है मोह-रूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण की परंपरा रूप संसार के उत्पादन का सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से.. उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है; तथा केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्म-गुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्रु है। इस प्रकार । यहाँ अरि से शत्रु और शत्रु का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते हैं,ऐसा अर्थ हुआ। ' दूसरे अर्थ में "रजोहननाद्वा अरिहंता" ऐसा अर्थ किया है। रज का अर्थ यहाँ आवरण कर्म रूप ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण किया है। ये कर्म रज अर्थात् धूलि की. तरह बाह्य और अंतरंग समस्त त्रिकाल के विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और 'दर्शन के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं। ___ मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के ही विनाश का उपदेश देने का कारण समझाते हुए कहा है-शेष सभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का अविनाभावी है। अर्थात् इन तीन कर्मों का नाश हो जाने पर शेष कर्मों का नाश अवश्य हो जाता है। तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः-रह से रहस्य और रहस्य से अन्तराय अर्थ को यहाँ अभीष्ट माना है। वस्तुतः यह व्याख्या 'अरहंत" शब्द की हो सकती है "रहस्याभावात्" से “अरहत" ऐसा शब्दसमायोजन ठीक है; परन्तु यहाँ पर रहस्य का अभाव है जिनको वे 'अरिहंत" ऐसी व्युत्पत्ति दी है। ___ अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घाति-कर्मों के नाश का अविनाभावी है। अन्तराय कर्म का नाश होने पर अघाति कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ अन्तराय कर्म का नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ होता है। ___अरिहंत शब्द का चौथा अर्थ करते हुए कहा है-अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः । स्वर्गावतरण-जन्माभिषेक-परिनिष्कमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामर्हत्वाद्योग्यत्वादर्हन्तः।यहाँ पर स्थानांग १. षट्खण्डागम-धवला टीका-मंगलाचरण, पृष्ठ १
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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