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अरिहंत का तत्व-बोध १५
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सूत्र की तरह पाँचों कल्याणक पर्यों पर देव, दानव एवं मानव द्वारा पूजा रूप अतिशय के योग्य अरिहंत ऐसा अर्थ कर योग्यत्ना अर्थ की प्रधानता प्रस्तुत की गई है।
इन अर्थों का सम्पूर्ण तारतम्य “अरहंत" “अरिहंत" दोनों अर्थ का तात्पर्य प्रस्तुत करना है। रह से रहस्य, रज आदि से अरहंत और अरि से अरिहंत शब्द, शब्द का अर्थ-विन्यास प्रस्तुत किया गया है। उपचार से बीज-नाश की बात कर अरुहंत शब्द का अर्थ भी गर्भित हो जाता है। अरुहंत.
अरुहंत शब्द का विन्यास "अ + रुहंत" और "अरु + हंत" ऐसे दो प्रकार से होता है। प्रथम विन्यास "अ" अभाव अर्थ का द्योतक है और “अरुहंत" शब्द “रुह" धातु “रुह" शब्द से बना है। - रुह जन्यवाचक धातु है, क्योंकि जनक कारण-वाचक शब्द योनि, ज, रुह्, जन्मन्, भू, सृति आदि शब्दों को “अन्" प्रत्यय लगाने से वे जन्यवाचक शब्द बनते हैं। अतः पुनः जो जन्म धारण नहीं करते हैं, पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं, और संसार के कारणरूप कर्मों का निर्मूल नाश करते हैं वे "अरुहंत" कहलाते हैं। महनिशीथ सूत्र में प्रस्तुत शब्द विन्यास को भावार्थ के साथ घटाते हुए कहा है-असेस कम्मक्खएणं निद्दड्ढभवांकुरत्ताओ न पुणहे भवंति जम्मति उववज्जति वा अरुहंता-समग्र कर्मरूप अंकुर के जल जाने से, क्षय हो जाने से जो संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं ये अरुहंत कहलाते हैं। तत्त्वार्थ कारिका में कहा है. दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥१ __ जिस प्रकार बीज के जल जाने से अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने से भव (जन्म-जन्मांतर) रूप अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। - दूसरा विन्यास है-अरु + हंत। अरुष-स् शब्द घाव अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ उपलक्षण से पीड़ादि के हेतुभूत रोग और उनके कारणभूत कर्मादि का नाश करने वाले अरुहंत ऐसा अर्थ होता है। “अरुहंताणं" का एक संस्कृतरूप “अरुन्धद्भ्यः" भी किया गया है। अरुन्धद्भ्यः शब्द से आवरण के अभाव के कारण उनका अवरोध नहीं होता है, अतः वे अरुन्धद् (अरुहंत) कहलाते हैं।
अरहंत शब्द की प्राचीनता ____ अरहंत, अरिहंत और अरुहंत-इन तीनों शब्दों के स्वरूप में अन्तर है परन्तु तात्पर्यार्थ तीनों का एक है। “अरहंत" शब्द सर्वाधिक प्राचीन रहा है। १. . भगवती सूत्र-मंगलाचरण-वृत्ति