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............................ १२ अरिहंत-शब्द दर्शन २-पूजा-सत्कार के योग्य और ३-सिद्धिगमन के योग्य।
इसमें अर्ह धातु के योग्यता अर्थ को प्रधानता देकर इन तीनों प्रकार की योग्यता से समर्थ अरहंत ऐसा अर्थ किया है।
इन्हीं अर्थों को विशेष रूप में विज्ञापित करते हुए मूलाचार में नमस्कार के योग्य, लोक में उत्तम, देवों द्वारा पूजा के योग्य और तीसरा कर्मरूप रज एवं शत्रु का हनन करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है।" वृत्तिकार ने "रजहंता" शब्द से ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय रूप कर्मरज का नाश करने वाले और “अरिहंति" शब्द का मोह और अंतराय रूप शत्रु का हनन करने वाले अरहंत कहलाते हैं, ऐसा अर्थ किया है।
स्थानांग सूत्र की टीका में भी योग्यता अर्थ को ही प्रधानता दी है और योग्यता में भी अष्ट महाप्रतिहार्य विशिष्टता को महत्त्व देते हुए कहा है-“उत्कृष्ट भक्ति के लिए तत्पर, सुरों और असुरों के समूह द्वारा विशेष रूप से रचित, जन्मांतर रूप महा आलवाल (क्यारी) में उपार्जित और निर्दोष वासना-भावनारूप जल द्वारा सिंचित पुण्यरूप महावृक्ष के कल्याण फल सदृश अशोकवृक्षादि अष्ट महाप्रतिहार्य रूप. पूजा के योग्य और सर्व रागादि शत्रुओं के सर्वथा क्षय से मुक्ति मंदिर के शिखर परं आरूढ़ होने के योग्य को अरहंत कहा जाता है।
भगवती सूत्र में वृत्तिकार इसके तीन अर्थ इस प्रकार करते हैं- .
“अरहोन्तर'' से अरहन्त-रहः याने एकान्तरूप गुप्त प्रदेश और अन्तर याने पर्वत की गुफा आदि का मध्यभाग। जगत् में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वज्ञ भगवान् से गुप्त हो अर्थात् रहस्य तथा अन्तर न होने से अरहोन्तर अरहंत हैं। __दूसरा अर्थ “अरथान्त'' से अरहंत कहा है-रथ शब्दं का यहाँ उपलक्षण से “सर्व प्रकार का परिग्रह" ऐसा अर्थ समझना। अंत अर्थात् विनाश तथा उपलक्षण से जन्म-जरादि समझना। रथ अर्थात् सर्व प्रकार के परिग्रह का अंत करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु यह सब जिन्हें नहीं हैं वे अरथान्त-अरहंत हैं। १. अरिहंति वंदण नमसणाणि. अरिहंति पजासक्कारं ।
सिद्धिगमणं च अरिहा, अरहंता तेण वुच्चंति ।-गा. ९२१ २. मूलाचार-वृत्तिसहित -गा. ५०५ ।।
अर्हन्ति अशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूढानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यरूपां पूजा निखिलप्रतिपन्थिपक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः। -अ. ४, उ. १, पत्र ११६