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२00 स्वरूप-दर्शन
समवसरण वृत्ताकार है। परमात्मा बीच में और श्रोतावर्ग उनके चारों तरफ रहता है। आने और बैठने का विशेष क्रम जो ऊपर दर्शाया है, वह भी दक्षिणावर्त ही है। इसी प्रकार आकर प्रभु को प्रदक्षिणा भी दक्षिणावर्त दी जाती है। इस प्रकार पुरातन काफी वृत्तियों का परावर्तन तो प्रभु के प्रवचन के पूर्व ही हो जाता है। फिर दूसरी बात समवसरण में निर्धारित उपरोक्त क्रम, व्यवस्था विशेष हेतु ही है बाकी तो उसकी रचना ऐसी है-सबसे पीछे बैठा हुआ स्वयं को प्रभु के निकट ही पाता है। सम + अवसरण = समवसरण। जहाँ सभी के अवसरण (बैठने की व्यवस्था) समान है उसे समवसरण कहा जाता है।
समवसरण की दूसरी विशेषता यह भी है कि उपरोक्त क्रम जो वैधानिक है और रत्नगणी हैं वे आदरणीय हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ कोई भी कभी भी आवे अपने नियत मंडल में जाकर बैठता है। कोई बाद में आकर आगे बैठने की धृष्टता नहीं करता है। चाहे वह कोई भी हो; क्योंकि समवसरण समभाव का आगार है।
विदिशाएँ .. श्रवण विधि
अग्निकोंण
बैठकर खड़े रहकर
नैऋत्य कोण
"
बारह प्रकार की आगमन द्वार पर्षदा
एवं दिशाएँ १. साधु २. वैमानिक
देवियाँ ३. साध्वियाँ ४. भवनपति देवियाँ दक्षिण ५. व्यंतर देवियाँ ६. ज्योतिषी
" देवियाँ ७. भवनपति देव पश्चिम ८. व्यंतरदेव ९. ज्योतिषी देव १०. इन्द्र सहित
वैमानिक देव ११. मनुष्य १२. मनुष्य की
स्त्रियाँ
व्यायव्य कोण
उत्तर
ईशान कोण
तिर्यंच द्वितीय प्राकार में देशना श्रवण करते हैं।