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________________ गुरुभक्ति ८२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम इन बीस स्थानकों का विभाजन देवभक्ति एवं गुरुभक्ति से वीर्याचार, ज्ञान आराधना से ज्ञानाचार, दर्शन आराधना से दर्शनाचार, चारित्र आराधना से चारित्राचार और तप आराधना से तपाचार रूप होने से पंचाचार का पूर्ण रूप बनता है जैसे१. अरिहंत वात्सल्य देवभक्ति २. सिद्ध वात्सल्य ४-५. गुरु वात्सल्य-स्थविर वात्सल्य ६-७. बहुश्रुत वात्सल्य-तपस्वी वात्सल्य ३. प्रवचन वात्सल्य ८. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग १८. अपूर्व ज्ञानग्रहण ज्ञान-आराधना १९. श्रुतभक्ति २०. प्रवचन प्रभावना ९. दर्शन • दर्शन-आराधना ११. आवश्यक १२. निरतिचार शीलव्रत चारित्र-आराधना १५. त्याग १७. समाधि १०. विनय १३. क्षणलव तप-आराधना १४. तप १६. वैयावृत्य ३. वात्सल्य सप्तक इन बीस स्थानकों में प्रथम के सात स्थानक वात्सल्य के स्थान हैं। इस आराधना में इन सात स्थानों के जो स्वामी हैं उनसे अनन्य प्रीति रूप वात्सल्य करना है। सहज ही प्रीति, प्रेम, मैत्री, स्नेह, वात्सल्य, भक्ति, परम भक्ति आदि प्रेम के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। प्रेम हेतु ही उपयोग में आनेवाले ये भिन्न शब्द अपने-अपने स्थानों में ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे-पति-पत्नी के प्रेम के लिए प्रणय शब्द, मित्र भाव में स्नेह या मैत्री, माता-पुत्र के प्रेम में वात्सल्य, गुरु-शिष्य के प्रेम में भक्ति, आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध में परमभक्ति शब्द प्रसिद्ध हैं। प्रेम का स्वरूप अखंड और अविभाज्य होने पर भी सम्बन्ध में उसके नाम बदल जाते हैं ।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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