________________
......................................................
१५८ स्वरूप-दर्शन मृग आदि विशेष के चिन्ह होते हैं। मांसलता के कारण पसलियों की हड्डियां दिखाई नहीं देती हैं। स्वर्णकांति-सा (सुनहरा) निर्मल, मनोहर और रोग के पराभव से आघात से रहित (भगवान का) देह होता है, जिसमें पूरे एक हजार आठ, श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण होते हैं। उनके पार्श्व-बगल नीचे की ओर क्रमशः कम घेरे वाले होते हैं, देह के प्रमाण के अनुकूल, सुन्दर, उत्तम बने हुए और मितमात्रिक-न कम न ज्यादा, उचित रूप से मांस से भरे हुए पुष्ट और रम्य होते हैं।
वक्ष और उदर पर सीधे और समरूप से एक-दूसरे से मिले हुए, प्रधान पतले, काले स्निग्ध, मन को भाने वाले, सलावण्य-सलोने और रमणीय रोमों की पंक्ति होती हैं। दृढ़ मांसपेशियों से युक्त कुक्षि होती है। मत्स्य का-सा उदर होता है। गंगा के भंवर के समान, दाहिनी ओर घूमती हुई तरंगों वाली सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्य भाग के समान गंभीर और गहन नाभि होती है। त्रिदंड, मूशल, सार पर चढ़ाए हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक-दर्पण दंड और खड्गमुष्टि-मूठ के समान श्रेष्ठ, वज्रवत क्षीण (देह का) मध्य भाग होता है। रोग शोकादि से रहित प्रमुदित श्रेष्ठ अश्व . और सिंह (की कटि) के समान श्रेष्ठ घेरे वाली कटि होती है। .
श्रेष्ठ घोड़े के (गुप्तांग के) समान अच्छी तरह (गुप्त) बना हुआ उत्तम गुह्यभाग होता है। भगवान् का शरीर लेप से लिप्त नहीं होता है। श्रेष्ठ हाथी के समान पराक्रम
और विलास युक्त चाल होती है। हाथी की सैंड़ के समान जंघाएँ होती हैं। पाद ग्रन्थियाँ गूढ़ और सश्लिष्ट होती हैं। शुभ रीति से स्थापित रखे हुए चरण होते हैं। क्रमशः बढ़ी घटी हुई (या बड़ी छोटी) (पैर की) अंगुलियां होती हैं। ऊँचे उठे हुए, पतले ताम्रवर्ण
और स्निग्ध (पैर के) नख होते हैं। लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां होती हैं। इस प्रकार की अपूर्व सौन्दर्य की राशि-देह-यष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के एक हजार आठ लक्षण होते हैं।
पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिन्हों और स्वस्तिक आदि मंगल चिन्हों से अंकित चरण होते हैं। भगवान का रूप विशिष्ट होता है। धुएँ से रहित जाज्वल्यमान अग्नि, फैली हुई बिजली और अभिनव-सूर्य किरणों के समान भगवान् का तेज होता है।
भगवान के जन्म से ही कार्मिक अणुओं के प्रवेश द्वारों को बंद कर दिया होता है। अतः निरुपलेप-द्रव्य से निर्मल देह वाले और भाव से कर्मबन्ध रूप लेप से रहित होते हैं। प्रेम-मिलन के भाव, राग-विषयों का अनुराग, द्वेष-अरुचि के भाव और मोह मूढ़ता-अज्ञान भाव से अतीत होते हैं।
निर्ग्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता-आज्ञा के प्रवर्तक, नायक और प्रतिष्ठापक उन-उन उपायों के द्वारा व्यवस्था करने वाले होते हैं। धर्म की प्ररूपणा, संघ की स्थापना रूप भविष्य का प्रायोगिक वीर्योल्लास उनमें जन्म से ही झलकता है। .