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________________ १९८ स्वरूप-दर्शन इसलिये ऐसा होवे"-ऐसी कोई कामना तीर्थंकर नहीं करते हैं। परंतु यह सब सहज हो जाता है। जैसे देशना भी सहज देते हैं। ऐसी साहजिकता से हो जाने वाली वास्तविकता को ही जीताचार कहा जाता है। वरना किसी परंपरागत नियमों के पालन की अनिवार्यता से अरिहंत जुड़े या बँधे नहीं होते हैं। प्रदक्षिणा करके "नमो तित्थस्स" कहकर तीर्थ को नमस्कार करते हैं। यहाँ शंका हो सकती है कि जिस तीर्थ की रचना वे करते हैं उसी को वे क्यों प्रणाम करते हैं ? यह भी समवसरण में जहाँ कि आगार और अणगार धर्म की प्ररूपणा और तीर्थ की स्थापना होती है। “नमो-तित्थस्स" कहकर यहाँ कौनसी आचारविधि की अभिव्यक्ति की . जा रही है ? ___"नमो" शब्द एक महत्वपूर्ण भाववाचक संज्ञा है। जिसका अर्थ होता हैं नमन हो। मैं नमन करता हूँ और नमन होवे इसमें बहुत अन्तर है। नमस्कार करना कर्तव्य है, व्यवहार है। नमस्कार हो जाना साहजिकता है। आदरभावों को प्राप्त कर नमस्कार सहज हो जाते हैं। करना कर्तव्य है, व्यवहार एवं आचार है। तीर्थंकर द्वारा तीर्थ के ' प्रति होने वाला नमस्कार तीर्थ का महत्व है। जिसकी उन्हें स्थापना करनी है वह धर्म . भी तीर्थ है। जिस रूप में करनी है वह संघ भी तीर्थ है। जिस प्रवचन की प्ररूपणा होती है वह भी तो तीर्थ है। इतना ही नहीं तीर्थंकर बनाने वाला यह शासन जिसको पाकर साधक तीर्थंकर बनता है वह भी तीर्थ है। फिर समस्त धर्म का प्रारंभ भी अहं के विसर्जन द्वारा संभव है और नमन के बिना अहं का विसर्जन असंभव है। अतः तीर्थ के नमस्कार रूप प्रभु का यह जीताचार संपूर्ण शासन के प्रति महान प्रेरणा है, स्थापना की जाने वाले तीर्थ का आदर है और एक अनिवार्यता का शुभ आरंभ है। इस प्रकार “नमो तित्थस्स" तीनों काल का शुभ सामंजस्य और सृष्टि के सत्त्व को प्रकट करने वाला महत्त्वपूर्ण योगबल है। आवश्यक चूर्णि में इसका समाधान इस प्रकार प्रस्तुत किया है-श्रुतज्ञान से भगवान् का तीर्थंकरत्व होता है। परमात्मा श्रुतज्ञान व्यतिरिक्त (रहित) होने पर भी श्रुतज्ञान से वचनयोग वाले होकर धर्म कहते हैं। लोक पूजित का पूजक है तो यदि मैं इसकी पूजा करूँ तो लोग भी इसे “तीर्थकर इसको महान मानते हैं तो न जाने इसमें क्या होगा ?" ऐसा सोचकर इसकी पूजा और रक्षा करेंगे। विनयमूलक धर्म की प्ररूपणा करनी है तो मैं ही क्यों न पहले इसका पालन करूँ? सिंहासन पर आरूढ़ परमात्मा तीर्थ को नमस्कार करके परमात्मा पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठते हैं। सिंहासन का वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्ति में कहा है-तृतीय पीठ के ऊपर एक-एक गंधकटी होती है। गन्धकुटियों के मध्य में पादपीठ सहित, उत्तर स्फटिक मणियों से निर्मित और घटाओं के समूहादिक से रमणीय सिंहासन होते हैं। रनों से खचित उन सिंहासनों की
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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