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आराधक से आराध्य ९७
___ पाँच लब्धियों में पाँचवीं विशेष लब्धि करणलब्धि द्वारा जीव सम्यक्त्व तक पहुँच पाता है। क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रयोगलब्धि ये चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को प्राप्त होती हैं।'
करण का अर्थ परिणाम होता है और लब्धि का अर्थ प्राप्ति या शक्ति होता है। अर्थात् उस समय उस जीव को ऐसे उत्कृष्ट परिणामों की प्राप्ति होती है जिनसे अनादिकाल से बँधी गाँठे टूट जाती हैं।
ये परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। ये क्रमशः होते हैं और इनमें से प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त है। इन तीनों में ग्रन्थि देश पर्यन्त प्रथम करण होता है। ग्रन्थि-भेदन जब होता है उस समय दूसरा करण होता है तथा ग्रन्थि भेद के पश्चात् तीसरा करण होता है। ग्रन्थि का स्वरूप
परिणाम में रहना आत्मा का स्वभाव है, परंतु आत्मा जब अपने शुद्ध परिणाम दशा का त्याग कर पर-परिणति में रत हो जाता है, तब उसकी यह विभाव (पर) परिणति उसके कर्म-बंध का कारण बन जाती है। कर्मों के साथ आत्मा का अनैसर्गिक सम्बन्ध है। अपनी नैसर्गिकता का विस्मरण कर आत्मा मन-वचन-काया द्वारा राग युक्त प्रवृत्ति करता है और लोहा जैसे लोहकान्त (चुंबक) की ओर आकर्षित होता है वैसे ही जगत में सर्वत्र भरे हुए-पुद्गल परमाणुओं में से अपनी रुचि अनुसार पुद्गलों को अपनी ओर खींचता है और तीव्र या मंद स्थिति के अनुसार तदनुयुक्त प्रमाण में पुद्गलों का आत्मप्रदेश के साथ संधान होता है। यह संधान गांठों के रूप में होता है। अतः आत्मा और कर्म का अपना मूल स्वरूप एक दूसरे में परिणत नहीं होता है। गांठों को खोलकर कर्मों को हटाया जा सकता है। ये राग और द्वेष से बंधी होती हैं। ___कर्म बंध के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं शुभाशुभयोग। इन कारणों में मिथ्यात्व अन्य सर्व कारणों की अपेक्षा आत्मा के साथ विशेष सम्बन्ध रखता है। आत्मतत्त्व का विस्मरण मिथ्यात्व है, इच्छाओं पर संयम रखने वाली शक्तियों का गोपन अविरति है। मद, विषय, कषाय, निंदा और विकथा से उत्पन्न तथा आत्मशोधन में बाधा रूप प्रवृत्ति प्रमाद है, राग-द्वेष वाली प्रवृत्ति कषाय है तथा मन, वचन एवं शरीर की सामान्य प्रवृत्ति योग है।
ये कर्म बंध चार प्रकार के हैं१-प्रकृतिबंध, २-स्थितिबंध, ३-अनुभागबंध, ४-प्रदेशबंध।
१. सम्यक्त्व सुधा-गाथा-४५९ । २. लोकप्रकाश-सर्ग-३, श्लो. ६०२ ।