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आराधक से आराध्य ११३
तप
आत्मा जिससे वासना-इच्छा से रहित होती है उसे वीतराग प्रभु ने सम्यक् तप कहा है। "देह का तपन ही तप नहीं है परंतु जीव की विभाव दशा का छूट जाना ही तप है।" "इच्छानिरोधस्तपः” “तपसा निर्जरा च" ये तप की परिभाषाएं हैं। सम्यक् तप से संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। इच्छा-निरोध के उपाय को दर्शाते हुए कहते हैं-"मैं आत्मा हूं, संकल्प-विकल्प से रहित हूं, इच्छा करना मेरा स्वभाव नहीं है।" इस प्रकार आत्मा के ज्ञान स्वभाव में एकाग्रता होने से इच्छा का निरोध होता है और निरोध रूप तप से संवर और निर्जरा होती है। सम्यक् तप द्वारा इच्छा का तथा सम्यक्तप के निमित्त से कर्म परमाणुओं का निरोध होता है। तप का उद्देश्य एवं परिणाम . ___ तप का मुख्य ध्येय जीवन-शोधन है। शास्त्रों में जहां-जहां तप का वर्णन किया गया है वहां इसी भाव की प्रतिध्वनि सुनाई देती है-“तवेण परिसुज्झई । “तवसा निज्जरिज्जइ" “तवसा धुणाई पुराणपावगं"३ “सोहओ तवो"४ इन शब्दों की ध्वनि में यही सकत छिपा हैं कि तप से आत्मा निर्मल, पवित्र एवं विशुद्ध हो जाता है।
गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! तप करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? उत्तर में भगवान ने कहा-तवेण वोदाणं जणयइ तप से व्यवदान होता है। व्यवदान का अर्थ है-दूर हटाना। तपस्या के द्वारा आत्मा कर्मों को दूर हटाता है। कर्मों
का क्षय करता है। कर्मों की निर्जरा करता है। बस यही तप का उद्देश्य है और यही • तप का फल है। . एक बार तुंगियानगरी के तत्वज्ञ श्रावकों ने भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर श्रमणों से तत्व चर्चा करते हुए पूछा-भंते ! आप तप क्यों करते हैं ? तप का क्या फल हैतवे किं फले? उत्तर में श्रमणों ने कहा-तवे वांदाण फले-तप का फल है व्यवदान। जो वात भगवान महावीर ने गौतमस्वामी से कही है, वही बात पार्श्वसंतानीया श्रमणों ने श्रावकों से कही है-और समस्त तीर्थंकरों ने, आचार्यों ने भी यही बात कही है। - वास्तव में तप आत्म-शोधन की एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है। वह एक अखण्ड इकाई है। उसके अलग-अलग खण्ड नहीं है। किन्तु फिर भी उसकी प्रक्रियाएं, विधियाँ अलगअलग होने के कारण उसके अलग-अलग भेद भी बताये गये हैं। मूलतः आगमों में तप के दो भेद बताये हैं
१. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. २८, गा. ३५। २. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. ३0, गा. ६। ३. दशवैकालिक सत्र-अ. १०. गा. ७/ ४. आवश्यक नियुक्ति-गा. १०३। ५. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. २९, सू. २७।