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११२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
अगली सीढ़ी ध्यान व समता कही जाती है। “जिसके द्वारा मन को भावित किया जाय"१ उसे भावना कहते हैं।
आचार्य मलयगिरिजी ने "भावना को परिकर्म" कहा है। परिकर्म अर्थात् विचारों को बारंबार भावना से भावित करना। पूर्वकृत अभ्यास द्वारा भावना बनती है और भावना का पुनः पुनः अभ्यास करने पर ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। आगम में कहीं कहीं भावना को अनुप्रेक्षा भी कहा गया है। स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकरण में धर्मध्यान आदि की चार अनुप्रेक्षा बताई गई हैं। वहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ भावना किया है। आचार्य उमास्वामी ने भी भावना के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है।
भावनाओं के बारह प्रकार हैं१. अनित्य-भावना
७. आनव-भावना २. अशरण-भावना
८.. संवर-भावना ३. संसार-भावना
९. निर्जरा-भावना ४. एकत्व-भावना
१०. धर्मदुर्लभ-भावना ५. अन्यत्व-भावना
११. लोकस्वरूप-भावना ६. अशुचि-भावना
१२. बोधिदुर्लभ-भावना चार भावना __जिस प्रकार बारह भावनाओं से शुभ चिन्तन को प्रोत्साहन मिलता है, उसी प्रकार निम्न चार भावनाओं से आत्मोन्नति में अग्रसर होने में सहायता मिलती है। ये चार भावनाएँ इस प्रकार हैं१. मैत्री
३. करुणा भाव २. प्रमोद भाव
४. माध्यस्थ भाव ध्यान
चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है। तत्वार्थ अधिकार में परिस्पंदन से रहित एकाग्र चिन्ता का निरोध ध्यान कहा है और उसे ही. निर्जरा एवं संवर का कारण बताया है। एकाग्र का अर्थ यहां मुख्य, सहारा, अवलंबन, आश्रय, प्रधान अथवा सन्मुख इत्यादि होता है। अनेक अर्थों-पदार्थों का अवलंबन होने से चिन्ता परिस्पन्दनवती होती है, उसे अन्य क्रियाओं से हटाकर एकमुखी करने का नाम ही एकाग्रचिन्ता निरोध है। गुणस्थान क्रमारोह में मन की स्थिरता को छद्मस्थ का ध्यान और काया की स्थिरता को केवली का ध्यान कहा है। १. परिकम्मेति वा भावनेति वा। __-बृहत्कल्प भाष्य भा. २, गा. १२८५ की वृत्ति पृ. ३९७