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________________ ........................................................ २५६ स्वरूप-दर्शन ___अरिहंत परमात्मा सर्वज्ञ होने से सर्ववस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण करते हैं अतः इन्हें चिंतन एवं विचार की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार वे मन का उपयोग भी नहीं करते हैं, किन्तु कभी अनुत्तरविमानवासी देव स्वर्ग में स्थित रहकर ही तत्व-चिंतन में शंका जिज्ञासा होने से अरिहंत भगवान् से प्रश्न पूछते हैं, उस समय उन्हें मनोयोग का उपयोग करना पड़ता है। इस समय अरिहंत परमात्मा मनोयोग का उत्तर रूप में उपयोग करते हैं. और अनत्तर विमानवासी देव वहीं रहकर अवधिज्ञान से स्वयं के प्रश्नों के उत्तरों को जानते एवं समझते हैं। अरिहंत परमात्मा इस मनोयोग के निरोध में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य (न्यूनतम) मनोयोग से भी नीचे के असंख्यात गुणहीन प्रथम मनोयोग का निरोध करते. हैं। इस प्रकार करते हुए असंख्य समय व्यतीत होने पर प्रथम मनोयोग का निरोध होता है। वचनयोग निरोध औदारिक-वैक्रिय-आहारक शरीर के व्यापार से ग्रहण किये जाने वाले वागद्रव्य- : समूह की सहायता से होने वाला आत्मवीर्य परिणाम वचनयोग है। मनोयोग का निरोध . हो जाने पर ऐसे वचनयोग को वचन-पर्याप्ति से प्राप्त द्वीन्द्रिय जीव को प्रथम समय में जो कम से कम वचनयोग होता है उससे भी असंख्य गुणहीन वचनयोग का समय-समय पर निरोध करते हैं, इस प्रकार असंख्य समय जब व्यर्तीत होता है तब वचनयोग का निरोध होता है। काययोग निरोध निर्वाणगमन के अवसर पर (मनोयोग-वचनयोग का सर्वथा निरोध, होने पर) अर्द्ध काययोग निरुद्ध होने पर जब सूक्ष्म कायक्रिया शेष रहतो. है तब "सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति" नामक तृतीय शुक्लध्यान होता है। ____ अनिवृत्ति अर्थात् सम्पूर्ण आत्मस्थिरता की ओर अत्यंत प्रवर्धमान परिणाम से युक्त अर्थात् सूक्ष्म में से बादर रूप में पुनः प्रवेश नहीं करने वाली ऐसी कायक्रिया वाला ध्यान याने "सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान।" यह अवस्था ही ध्यान है। इस "सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति" नामक तृतीय ध्यान में मनोयोग एवं वचनयोग का जब सर्वथा रुंधन हो जाता है तो फिर इसे ध्यान कैसे कहते हैं ? क्योंकि मन से ही तो ध्यान होता है। यहां मन ही समाप्त हो गया है “ध्येय चिन्तायाम्" ऐसे पाठ से "ध्येय" पर से बने हुए ध्यान का अर्थ तो चिन्तन होता है जो मन के अतिरिक्त कैसे संभव हो सकता है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए ध्यान शतक में कहा है कि छद्मस्थों के लिए मन की सुस्थिरता ध्यान है जब कि केवली भगवान के लिए काया का सुनिश्चल होना ध्यान है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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