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आराधक से आराध्य ७९ कहलाता है। इसे स्थानक कहने का मतलब है आत्मा जिन-जिन स्थान निमित्त का अवलम्बन लेकर स्वयं की उन्नति साधता है वह स्थानक कहलाता है। २. श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताएँ
श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञातासूत्र, आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में ये २० कारणस्थानक कहे हैं। ये बीस कारण निम्नोक्त गाथा-त्रय द्वारा निर्दिष्ट हैं
अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु ।
वच्छल्लया एएसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥ दसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइआरो । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अपुव्वनाणगहणो सुयभत्ती पवयणे पभावणया ।
एएहि कारणेहिं तित्थयरतं लहइ जीवो ॥ इसमें बताये गये २० कारण इस प्रकार हैं(१) अरिहंत-वात्सल्य
(११) आवश्यक (२) सिद्ध-वात्सल्य
(१२) निरतिचार शीलव्रत (३) प्रवचन-वात्सल्य (१३) क्षणलव-ध्यान (४) गुरु-वात्सल्य
(१४) तप (५) स्थविर-वात्सल्य . (१५) त्याग
(६) बहुश्रुत-वात्सल्य (१६) वैयावृत्य . (७) तपस्वी-वात्सल्य (१७) समाधि . (८) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (१८) अपूर्वज्ञान ग्रहण (९) दर्शन
(१९) श्रुतभक्ति (१०) विनय
(२०) प्रवचन-प्रभावना षट्खंडागम आदि दिगम्बर ग्रन्थों में अरिहंत बनने के निम्नोक्त १६ कारण दर्शाये
(१) दर्शन विशुद्धता
. (९) साधुओं की समाधि संधारणा (२) विनयसम्पन्नता
(१०) साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता (३). शील-व्रतनिरतिचारिता (११) अरहंत-भक्ति (४) आवश्यकापरिहीनता, (१२) बहुश्रुत-भक्ति (५) क्षणलवप्रतिबोधता (१३) प्रवचन-भक्ति (६) लब्धिसंवेगसंपन्नता (१४) प्रवचन-वत्सलता (७) यथाशक्तितप
(१५) प्रवचन-प्रभावनता (८). साधुओं को प्रासुक परित्यागता (१६) अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता।