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________________ ६६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम इस ध्यान साधना में प्रथम निज काया में रहकर काया का उत्सर्ग किया जाता है। कितना मुश्किल लगता है न, जिसमें रहकर उसका त्याग। इस प्रणाली को अपनाने की पद्धति या प्रक्रिया विषम जरूर है परन्तु अनुभूतिपरक होने से जिज्ञासु इसकी उपलब्धि कर सकते हैं। सर्वप्रथम शांत एकांत स्थान में बैठकर अरिहंत के विशुद्ध रूप को अन्तर्चक्षु के सामने ले आओ। फिर यह भावना करो कि मैं संसार के समस्त अन्य भावों से, सम्बन्धों से, विषयों से, विकल्पों से, विकारों से, विचारों और विभावों से विमुक्त हो रहा हूँ। ___ सम्पूर्ण काया का उत्सर्ग करने से शरीर बिल्कुल शिथिल हो जाएगा। देह का शिथिल हो.जाना वास्तविक कायोत्सर्ग है। योग में जो शवासन की स्थिति है उस स्थिति को सामने लाओ। आचारांग में चेतना के ३२ केन्द्र स्थान बताये हैं, जैसे- . १. पैर २. टखने ३. जंघा ४. घुटने ५. उरु ६. कटि ७. नाभि ८. उदर ९. पार्व-पसाल १०. पीठ ११. छाती १२. हृदय १३. स्तन १४. कन्धे १५. भुजा . १६. हाथ १७. अँगुली १८. नख १९. ग्रीवा (गन) २०. ठुड्डी २१. होठ २२. दांत २३. जीभ. २४. तालु २५. गला २६. कपोल २७. कान २८: नाक २९. आँख ३०. भौंह ३१. ललाट ३२. सिर। इन एक-एक स्थान को क्रमशः धीरे-धीरे शिथिल करके अपने प्राणों में ध्यान को केन्द्रित कर दीजिए; और मन को अरिहंत से संयुक्त कर दीजिये। यह अनुभव करते रहिये कि अरिहंत परमात्मा की विशुद्ध चेतना में मेरा प्रवेश हो रहा है।, मेरी चेतना उनकी चेतना में एकरूप हो रही है। धीरे-धीरे प्राणों के साथ चेतना का तादात्म्य होता जायेगा। प्राण और चेतना का सम्पर्क होने पर ध्यान उस विशुद्ध चेतना में केन्द्रित हो जायेगा जहाँ हम आज तक कभी नहीं पहुंच पाये। . - इसमें किसी मन्त्रादि की आवश्यकता नहीं। शब्द, विचार आदि समस्त पुद्गल से मुक्त होकर प्राणों की ऊर्जा को अपने निज स्वरूप से संयुक्त कर दीजिये। फिर भी पुद्गल का स्वभाव है कभी शीत का, कभी उष्ण का, कभी स्पंदन का अनुभव होता रहेगा पर आप इसे इतना महत्वपूर्ण न समझकर प्राणों में ही केन्द्रित रहने का प्रयास कीजिये। इतने पर विचारों का आवागमन अपने आप समाप्त हो जाएगा। कई बार मोहनीय के उदय से राग-द्वेष जनित भावधारा में कोई विकल्प उठ भी जावे तो उसे ही अपनी कमजोरी का कारण समझकर “मेरा निज स्वरूप राग-द्वेष से सर्वथा भिन्न है और मुझे निजरूप में रमण करना है" ऐसा ध्यान में लाने पर उन कर्मों की निर्जरा हो जाएगी और पुनः चेतना अपनी प्राणधारा में प्रवेश कर अरिहंत से सम्पर्क स्थापित करेगी।.
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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