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२४४ स्वरूप-दर्शन गणधर शब्द मुख्यतः दो अर्थों में प्रयुक्त है। तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थंकर) के द्वारा प्ररूपित तत्त्व ज्ञान का द्वादशांगी में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं-वे गणधर कहे जाते हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम नामक प्रमाण भेद में बताया गया है कि गणधरों को सूत्र आत्मगम्य होते हैं। दूसरे शब्दों में वे सूत्रों के कर्ता हैं। __इस उत्तर रूप त्रिपदी को प्राप्त करते ही गणधर को "गणधर नामकर्म" का उदय होता है और उत्कृष्ट मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्राप्त होता है? इस प्रकार अरिहंत के मुख से सुनने का अतिशय समर्थ निमित्त पाकर गणधर विशिष्ट क्षयोपशम की लब्धि . प्राप्त करते हैं और संयम-ग्रहण, विनीतभाव, अर्हत् समर्पण, असाधारण तत्त्व जिज्ञासा, शुषूसा, कुशाग्रबुद्धि और पूर्वभव की प्रबल धर्मसाधना वश श्रुतज्ञानावरण कर्मों का वहीं विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है। गणधर नाम कर्म का उदय होते ही गणधरं . उत्कृष्ट मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के आधार पर अंतर्मुहूर्त में चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना करते हैं।
इस विषय में ग्रन्थकारों की भिन्न मान्यताएं प्रसिद्ध हैं-कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार ग्यारह अंग एवं चौदह पूर्व की रचना करते हैं। एवं कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार गणधर चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना करते हैं। ___यहां प्रथम मान्यता में चौदह पूर्वो को द्वादशांगी के अन्तर्गत ही गिन लिया गया है, द्वितीय मान्यता के अनुसार चौदह पूर्वो को बारहवें अंग के अन्तर्गत माना गया है; परंतु अंग १२ न कहकर चौदह पूर्व को अलग और ११ अंग अलग माने गये हैं। तृतीय मान्यता के अनुसार चौदह पूर्वो को द्वादशांगी से अलग माना गया है किन्तु रचना करते समय चौदह पूर्व सहित बारह अंग रचते हैं। पूर्व संस्कृत भाषा में रचित होने से ग्यारह अंगों से अलग माने जाते हैं। वस्तुतः बारहवाँ अंग चौदह पूर्वो का एक समूहात्मक रूप ही है। इस बात का प्रमाण यह है-बारहवाँ अंग निम्नोक्त पांच विभागों में विभक्त किया गया है। (१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वानुयोग, (४) पूर्वगत और (५) चूलिका। इन पाँच भेदों में चौथे पूर्वगत प्रकार में चौदह पूर्वो का समावेश हो जाता है। उन चौदह पूर्वी में प्रथम चार पूर्वो में (१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वानुयोग और (४) चूलिका ये चारों प्रकार आते हैं। अतः यहां प्रस्तुत करने की पद्धति अलग होने पर भी आशय समान है। प्रायः प्रत्येक ग्रन्थकार बारहवें अंग को. चौदह पूर्वो का समूहात्मक रूप ही मानते हैं।
इसकी पूर्णतः स्पष्टता दर्शाते हुए कहा है-"उन गणधरों ने त्रिपदी द्वारा आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग. समवायांग, भगवती अंग, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा,