________________
१० अरिहंत-शब्द दर्शन
जन्म, प्रव्रज्या और केवलज्ञान में उद्योतादि होना और निर्वाण के समय अंधकार होने का उल्लेख है।
कल्पसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार हैचइस्सामि त्ति जाणइ, चइमाणे न जाणइ, चुए मि ति जाणइ।"
भगवान महावीर के चरित्र में अवधिज्ञान के कारण गर्भ में माता के भावों को समझने का और “जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करूँगा" ऐसा अभिग्रह-संकल्प करने का । उल्लेख भी मिलता है।३
स्थानांग सूत्र, ज्ञातासूत्र और कल्पसूत्र में कथित उपरोक्त उल्लेखों में प्रति स्थान पर तीर्थंकर की जगह अरहा, अरहंत और अरिहंत शब्द का प्रयोग हुआ है। दूसरी एक यह भी बात है कि देवागमनादि उद्योत, अंधकार आदि अरिहंत के अतिरिक्त अन्य किसी पूज्य पुरुष के किसी प्रसंगों में होने का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है।
पूजा के अर्थ में सिर्फ देवों द्वारा पूजे जाने के बल पर इस व्याख्या को महत्व नहीं दिया गया है परन्तु अरिहंत सम्पूर्ण सृष्टि के मंगलमय पूज्य तत्व हैं। इनसे धर्म की उत्पत्ति, परमार्थ की परिणति और मोक्ष की निष्पत्ति उद्घाटित होती है।
किसी भी स्थिति को प्राप्त कर लेना निजस्थिति से सम्बन्धित है, परन्तु स्वयं प्राप्त करके साथ में प्राप्त करने योग्य आत्मा में योग्यता प्रकट कर परमार्थ का निमित्त बन जाना एक विशेष अवस्था मानी जाती है।
कर्मबन्ध या कर्मक्षय रूप मोक्ष प्राप्ति में प्रत्येक जीव स्वतंत्र है। निमित्त कारण उपादान कारण के आगे गौण इसलिये है कि जहाँ उपादान विशुद्ध नहीं होता वहाँ निमित्तजन्य अभिव्यक्ति सफल नहीं हो पाती है। उपादान की विशुद्धि के लिये कर्मबन्ध के कारण और निवारण रूप उपाय जानने आवश्यक हैं अन्यथा वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट नहीं सकता।
परमाराध्य अरिहंत मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यह मार्गदर्शन इनकी सर्वोपरि विशिष्टता है। इसी कारण वे तीर्थ की स्थापना करते हैं, प्रवचन करते हैं और पूजे जाते हैं।
प्राकृत भाषा में मूलतः दो शब्द हैं अरह और अरहंत। इसका विस्तार रूप है अरह, अरिह, अरुह और अरहंत, अरिहंत, अरुहंत। कोशकार के अनुसार इनके विभिन्न अर्थ इस प्रकार हैं१. कप्पसुत्तं-सूत्र ३ २. कप्पसुत्तं-सूत्र ८८ ३. कप्पसुत्तं-सूत्र ९१