________________
१३४ स्वरूप-दर्शन
(४) तद्विपरीत स्वप्न-दर्शन-स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जाग्रत होने पर उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना "तविपरीत स्वप्न दर्शन" है। जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने शरीर को अशुचि पदार्थ से लिप्त देखा, किन्तु जाग्रतावस्था में कोई पुरुष उसके शरीर को शुचि-पदार्थों से लिप्त करे।
(५) अव्यक्त स्वप्न-दर्शन-स्वप्न विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना "अव्यक्त-स्वप्न-दर्शन" है।'
जिनसेन के अनुसार स्वप्न दो प्रकार के हैं-स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले। जो धातुओं की समानता के समय दिखते हैं वे स्वस्थ अवस्था वाले हैं और इससे विपरीत अस्वस्थावस्था वाले हैं। स्वस्थ अवस्था में दिखने वाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दिखने वाले स्वप्न असत्य होते हैं। स्वप्नों के और भी दो भेद होते हैं-एक देव से उत्पन्न होने वाले और दूसरे दोष से उत्पन्न होने वाले। प्रथम प्रकार के स्वप्न सत्य और द्वितीय प्रकार के स्वप्न असत्य होते हैं।२ तीर्थकर की माता को चौदह स्वप्न
सब तीर्थंकरों की माताओं को एक ही से स्वप्न आते हैं। दिखने के क्रम में क्वचित् अन्तर होने का उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है-जैसे ऋषभदेव भगवान की माता । ने प्रथम वृषभ को स्वप्न में देखा था, और भगवान महावीर की माता ने प्रथम सिंह को स्वप्न में देखा था। श्री शीलांकाचार्य के अनुसार पार्श्वनाथ भगवान की माता ने ११वां भवन एवं १२वाँ क्षीर सागर का स्वप्न देखा था।
इन चौदह स्वप्नों में क्रम के अतिरिक्त एक दूसरा अन्तर आता है १२वें स्वप्न में। नरक से आने वाले अरिहंतों की माता १२वें स्वप्न में “भवन" देखती है और स्वर्ग से आने वालों की माता "विमान" देखती है।
दिगम्बर ग्रन्थों में १६ स्वप्न और श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार १४ स्वप्न माने जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में स्वप्नों की संख्या १६ मानी है। उसमें उपर्युक्त १४ स्वप्नों में ध्वजा का स्थान नहीं है अतः शेष १३ के अतिरिक्त मत्स्ययुगल, सिंहासन एवं नागेन्द्र भवन ये तीन स्वप्न अधिक माने जाते हैं। विमान एवं भवन सम्बन्धी मान्यता का वहाँ कोई उल्लेख नहीं है। यद्यपि पद्मपुराण की प्रस्तावना में स्वप्नों की संख्या १५ मानी है- इसमें सिंहासन नामक स्वप्न का उल्लेख नहीं है।
पूर्वोक्त बताये गये महत्वपूर्ण स्वप्नों में १४ महास्वप्नों को देखकर प्रसन्न हुई जिनेश्वर की माता अपने पति राजन् के पास जाकर दर्शित स्वप्नों को सुनाती है। - १. भगवतीसूत्र-शतक-१६ उ. ६. सूत्र १ की टीका २. आदिपुराण-पर्व-४१, श्लो, ५६-६१ (भाग-१-पृ.२१) ३. महापुराण-१, सर्ग १२वी, श्लोक-१५५-१६१