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११० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
३. उपाश्रय के दरवाजे न खोलना, न बंद करना और न ऊपर नीचे करना। ४. हवा रहित को सहित नहीं करना।
५. गुरु, ज्ञानी, तपस्वी, वृद्ध, रोगी एवं नवदीक्षित की सेवा करना। चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावना
१. स्त्री-पुरुष-पशु रहित स्थान का उपयोग करना। २. स्त्री एवं पुरुष को एकांत स्थान में बात-चीत नहीं करना। ३. पूर्वभुक्त कामभोग याद नहीं करना। ४. प्रतिदिन अधिक आहार नहीं करना।
५. पुरुष को स्त्री के और स्त्री को पुरुष के अंगोपांग नहीं देखना। पंचम महाव्रत की पांच भावना १. मनोज्ञ (प्रिय) शब्द पर राग नहीं करना, अमनो (अप्रिय) शब्द पर द्वेष
नहीं करना। २. मनोज्ञ रूप पर राग नहीं करना. अमनोज रूप पर द्वेष नहीं करना। ३. मनोज्ञ रस पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ रस पर द्वेष नहीं करना। ४. मनोज्ञ गंध पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ गंध पर द्वेष,नहीं करना।
५. मनोज्ञ स्पर्श पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष नहीं करना। अणुव्रत इस प्रकार हैं
१. छोटे बड़े प्रत्येक जीव की मानसिक, वाचिक, कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग न हो सकने के कारण अपनी निश्चित की हुई गृहस्थमर्यादा, जितनी हिंसा से निभ सके उससे अधिक हिंसा का त्याग करना-यह अहिंसाणुव्रत है।
२-५. इसी तरह असत्य, चोरी, कामाचार और परिग्रह का अपनी परिस्थिति के अनुसार मर्यादित त्याग करना-वे क्रमशः सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अणुव्रत हैं।
६. अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर तरह से अधर्म कार्य से निवृत्ति धारणा. करनादिग्विरति व्रत है।
७. जिसमें अधिक अधर्म .संभव हो-ऐसे खान-पान, गहना-कपड़ा, बर्तन आदि का त्याग करके कम अधर्म वाली वस्तुओं का भी भोग के लिए परिमाण बांधनाउपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है।
८. अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होने वाले अधर्म व्यापार के सिवाय बाकी के सम्पूर्ण अधर्म व्यापार से निवृत्त होना, अर्थात् निरर्थक कोई प्रवृत्ति न करनाअनर्थदण्डविरति व्रत है।