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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४९ रचना क्रिया तक वृत्ति संचालन व्यक्ति की इच्छा से होता है परन्तु यह कार्य जब अनैच्छिक रचना क्रिया तक पहुँच जाता है तो वह नियत्रंण से बाहर हो जाता है। फिर उस वृत्ति पर व्यक्ति का अधिकार या स्वामित्व समाप्त हो जाता है।
३. तीसरे प्रकार के लोग अनैच्छिक रचना क्रिया से पीड़ित होते हैं। इसमें उनका वृत्तियों पर अपना न कोई नियंत्रण रहता है, न मालकियत। इसमें वृत्ति विवश बनकर व्यापक हो जाती है। यह प्रणाली इतनी शीघ्रता से हो गुजरती है कि व्यक्ति को इस प्रकरण शैली का पता ही नहीं लगता है सिर्फ परिणाम उसके सामने आ जाता है।
प्रथम प्रकार के लोग परम साधक दशा वाले हैं। दूसरे प्रकार के लोग समान्य या व्यवहार साधक होते हैं। जैसे किसी व्यापारी को दुकान में ग्राहक के किसी अनुचित व्यवहार से क्रोध आना। परिस्थिति, वातावरण और अपनी प्रतिष्ठा के कारण वह उससे लड़ नहीं सकता है और कहता है कि मैं गुस्सा पी गया। तारतम्य यही है कि ऐच्छिक रचना क्रिया पर इसे रोक लिया जाता है। परिणामतः यह तीसरी अवस्था तक न पहुँच सके।. ___काम, क्रोध भयादि का उठना संज्ञा है। इसे व्यक्त और व्याप्त तो सभी करते हैं पर समाप्त या संक्षिप्त करने के लिए अरिहंत परमात्मा की सिद्धान्तशाला में इस कषाय-विजय या समुद्घात की सिद्धान्त शैली को स्वीकारना, सीखना और सफल करना होगा। ___ अरिहंत से यदि हमें ये सारे सिद्धान्त न मिलते तो हम अभी भी विज्ञान के इस अधूरे अनुसंधान की युगों तक पूर्ण प्रतीक्षा करते रहते। बिना प्रतीक्षा के अपेक्षा रहित अरिहंतों की समीक्षा से समाहित सिद्धांत को शतशः नमन हो।