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________________ अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४७ - हाथ पैरों के तलुवों में से तरंगों के साथ बिजली प्रसारित flow होती है। मस्तिष्क इस तरंगित बिजली को स्वीकारता है,.absorb करता है। इसीलिये मस्तिष्क का झुकना, चरण का स्पर्श करना, हाथों से आशीर्वाद देने की आत्यंतिक अनुभूतिपरक परंपरा का निर्माण हुआ है। महान पुरुषों की देह में से जो ऊर्जाएं तरंगित होती हैं उनमें अल्फा तरंगें अधिक होती हैं। नमस्कार की मुद्रा में पैरों में से निकलती ऊर्जा मस्तिष्क द्वारा absorb की जाती है। ऊर्जा अल्फा तरंगों वाली होने से व्यक्ति इससे भर जाता है। परिणामतः प्रसन्न हो जाता है। उसके विषाद समाप्त होते हैं। इनके चैतसिक प्रभाव से चुंबकीय, रासायनिक और उष्मीय परिवर्तन हो जाता हैं। कायोत्सर्ग से किरणोत्सर्ग होता है। ये किरणें शरीर से बाहर फैलकर अपना प्रभाव प्रकट करती हैं। Medical Institute of Madras ने ऐसे उपकरणों का निर्माण किया है, जिससे मनुष्य के मस्तिष्क में अल्फातरंगें देखी भी जा सकती हैं और संप्रेषित भी की जाती हैं। आज भी इस दिशा में विज्ञान की खोज जारी है। ७. कषाय-विजय-वृत्ति संक्षय __क्रोध आने के मुख्य दो कारण हैं-अहं का टूटना और कामवृत्ति का असंतुलन। क्रोध आने से अन्य तो दुःखी होते ही हैं लेकिन क्रोधी भी स्वयं शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से पीड़ित होता है। जैसे-क्रोध के समय व्यक्ति का हृदय धड़कता है, किडनी संकुचित होती है, लीवर से कार्बोदित अलग होता है, ब्लड के रक्तकण कम होते हैं, आँतें स्तब्ध होती हैं, पाचन तन्त्र धीमा पड़ता है, दिमाग उत्तेजित और आंखें लाल होती हैं। रक्तचापं बढ़ता है और सुंदर व्यक्ति भी कुरूप और कठोर लगता है। क्रोधादि दूषित वृत्तियों से मुक्त होने के इच्छुक कई लोग अपनी इस लाचारी या विवशता से पीड़ित हैं। क्रोध होने के बाद भी "मैंने कहाँ क्रोध किया है ?" ऐसा कहने वालों की यह बात नहीं है; परंतु वे जो चाहते हैं कि इस दूषण से मुक्त हो जायँ फिर भी समय, परिस्थिति और वातावरण के प्रभाव में आकर वे इसका शिकार हो जाते हैं। अरिहंत परमात्मा ने उनकी इस पीड़ा को जाना है, समझा है, और इससे मुक्त होने के उपाय प्रस्तुत किये हैं। क्रोधादि कषाय आत्मा का स्वभाव नहीं, वृत्ति हैं। स्वभाव को कभी बदल नहीं सकते हैं परंतु वृत्तियाँ बदली जा सकती हैं, संक्षिप्त हो सकती हैं और व्याप्त भी हो सकती हैं। इस वृत्ति को संक्षिप्त करने से वह छोटी होती है। छोटी हो जाने पर इसका निरोध हो सकता है, इसे रोकने में सुविधा हो सकती है। इन कषायों को खोलकर देखने से हम इसका शारीरिक, मानसिक और आत्मिक प्रभाव, प्रक्रिया, परिवर्तन, परिणाम के स्वरूप और प्रणाश के उपायों को पा सकेंगे। __कषाय, यह वृत्ति है और प्रत्येक वृत्ति का अपना उद्गम स्थान-मूलस्थान अवश्य होता है। एकदम शांत चित्त में वातावरण के प्रभाव से यह ऊर्जा के साथ उठती है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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