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२४ अरिहंत-शब्द दर्शन वरन् नित्य परमाणुओं, दिक्, काल, आकाश, मन तथा आत्माओं से उसकी सृष्टि करता है। वह संसार का पोषक भी है। उसकी इच्छानुसार संसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक भी है। जब-जब धार्मिक प्रयोजनों की या संसार के संहार की आवश्यकता पड़ती है, तब-तब यह संसार में भी आता है। यद्यपि फल प्रदान हेतु ईश्वर को मनुष्य के पाप और पुण्य के अनुसार चलना पड़ता है, फिर भी वह सर्वशक्तिमान् है। मनुष्य अपने कर्मों का कर्ता तो है, लेकिन वह ईश्वर के द्वारा अपने अदृष्ट (अतीत कर्म) के अनुसार प्रेरित या प्रयोजित होकर कर्म करता है। इस प्रकार ईश्वर संसार के मनुष्यों एवं मनुष्येतर जीवों का कर्म-व्यवस्थापक है, उनके कर्म का. फलदाता है और सुख-दुख का निर्णायक है। वैशेषिक दर्शन
इसके अनुसार सृष्टि और संहार का. कर्ता महेश्वर है। उसकी इच्छा से संसार की सृष्टि होती है और उसी की इच्छा से प्रलय होता है। जब उसकी इच्छा हो, तब संसार बन जाता है। जिसमें सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुख का भोग कर सकें,
और जब उसकी इच्छा हो तब वह उस जाल को समेट लेता है। यह सृष्टि और प्रलय का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है। सृष्टि का अर्थ है, पुरातन क्रम का ध्वंस कर नवीन का निर्माण करना। जीवों के कर्म पूर्वकृत पुण्य और पाप को ध्यान में रखते हुए ईश्वर नव सृष्टि की रचना करता है। ब्रह्म या विश्वात्मा, जो.अनन्तज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का भंडार है, ब्रह्माण्ड के चक्र को इस प्रकार घुमाता है कि पूर्वकृत धर्म और अधर्म के अनुसार जीव सुख-दुःख का उपभोग करते हैं।
सर्जनहार ईश्वर की कल्पना न्याय, वैशेषिक एवं वेदांत दर्शन में पायी जाती है। यह कल्पना चाहे कितनी भी महान हो फिर भी वह सन्तोषप्रद नहीं है। क्योंकि मनुष्यों को ईश्वर की सर्जनक्रिया के प्रति कई ऐसे प्रश्न उठा करते हैं जिनका योग्य समाधान इस कल्पना से नहीं होता है। यदि ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति करता है तो उसमें कोई हेतु या प्रयोजन होना ही चाहिये। अथवा स्वयं की कोई इच्छा तृप्त करने के लिये अथवा कोई वस्तु प्राप्त करने के लिये या स्वयं में रही हुई कोई अपूर्णता दूर करने के लिये ईश्वर सृष्टि का सर्जन करता होगा, ऐसा मानना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर स्वयं पूर्ण नहीं, अपूर्ण है। इसीलिए सांख्य तत्वों ने सर्जनहार की कल्पना अमान्य रखी है। कुछ लोग ऐसा तर्क करते हैं कि ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है, क्योंकि यह उसका स्वभाव है। अनेक ब्रह्माण्डों से वेष्टित रहने की ईश्वर की नित्यलीला ही सर्जन है। लगता है ईश्वर की पूर्णता का यह निष्फल बचाव है। क्योंकि यदि सृष्टि एक पूर्ण पुण्यात्मा की कृति है तो उसमें इतना संक्लेश, इतनी अपूर्णता और इतने अन्याय क्यों हैं? अपने द्वारा उत्पन्न प्राणियों को ही ईश्वर क्यों पीड़ा देता है?