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अरिहंत का तत्व-बोध १९ ४. अरिहंते इति विशेष्यपदम् योगशास्त्र स्योपज्ञ विवरण-पत्र २२४
जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर ५. अरिहंते इति विशेष्यपदम् वंदारु वृत्ति-पृ. ४0 ऋषभदेव
केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम। ६. अर्हतः कीर्तयिस्ये, कथंभूतानर्हतः आचार दिनकर-भाग-२ पत्र-२६७
- खरतर ग्रंथमाला ७. अरहते इति विशेष्यपदम् धर्म संग्रह-भा. १, पत्र-१५५ देवचंद
लालभाई जैन, पुस्तक-संस्था सूरत विशेष्य से यहाँ मतलब है-इन विविध विशेषताओं के योग्य, पंचपरमेष्ठी पद के प्रथम अधिष्ठाता और नमस्कार महामंत्र में प्रथम “नमो अरिहंताणं" पद के वाच्याधिकारी परमाराध्य।
भारतीय दर्शन में अरिहंत शब्द की दार्शनिकता
ईश्वर शब्द की व्याख्या एवं व्यापकता
शब्द की ऐतिहासिक धारणा पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वैदिक दर्शन के यौवनकाल में ईश्वर शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ था। उस समय जगत् कर्तृत्व आदि विविध शक्तियों की धारक महाशक्ति को ही ईश्वर के नाम से व्यवहृत किया जाता था, किन्तु अन्तिम कुछ शताब्दियों से ईश्वर का उच्चारण करते ही मनुष्य को सामान्य रूप से परमात्मा का बोध होता है। आज ईश्वर शब्द का उच्चारण करने पर जगत्निर्माता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा अवतार-रूप शक्ति-विशेष का बोध नहीं होता है। ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, नित्य है आदि बातों का भी आज ईश्वर शब्द परिचायक नहीं रहा है। आज तो ईश्वर शब्द सीधा परमात्मा का निर्देश करता है, फिर चाहे कोई इसे किसी भी रूप में स्वीकार करता हो। ईश्वर शब्द सामान्य रूप से परमात्मा का निर्देशक होने से आज सर्वप्रिय बन गया है। आत्मवादी सभी दर्शन ईश्वर को आदरास्पद स्वीकार करते हैं। __ आज ईश्वर, परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध, खुदा आदि सभी शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से इन शब्दों के पीछे किसी का कोई भी पारिभाषिक अभिमत रहा हो, किन्तु जन साधारण इन समस्त शब्दों से परमात्मा का ही बोध प्राप्त करते हैं। जैन दर्शन और ईश्वर शब्द ___ अनन्त आत्माओं में ईश्वर के अस्तित्व की प्रतिष्ठा मानने वाले जैन दर्शन के लिये "जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं है" ऐसा कहना भ्रान्त धारणा है। जैन दर्शन ईश्वर