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________________ १८ अरिहंत-शब्द दर्शन . . . . . . शक. ४११ ई. ४८८ में अल्तेम (जिला कोल्हापुर) की संस्कृत पत्रावली में ज्ययत्यनन्तसंसार पारावारैकसेतवः । महावीरार्हतः पूताश्चरणाम्बुजरेणवः ॥ इस प्रकार का श्लोक उपलब्ध होता है। आगमेतर साहित्य __ आगमेतर जैन साहित्य में यत्र-तत्र कई स्थलों पर अरहंत शब्द का विशेषाधिक प्रयोग हुआ है ललितविस्तरा में परमात्मस्तुति पाठ की व्याख्या में “अरहंत" शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रोकृतकाव्य कुवलयमाला में परमात्मा की स्तुति में कहते हैं एस करेमि पणामं अरहंताणं विशुद्ध-कम्माणं । सव्वातिसय-समग्गा अरहंता मंगलं मज्ज ॥ अरहंत-णमोकारो जई कीरइ भावओ इह जणेणं । तो होइ सिद्धिमग्गो भवे-भवे बोहि-लाभाए ॥ अरहंतणमोकारो तम्हा चिंतेमि सव्वभावेण । दुक्ख-सहस्स-विमोक्खं अह मोक्ख जेण पावेमि ॥ "चउपनमहापुरिसचरियं" में जैन मंदिर के लिए "अरहंतासणव"१ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार "अरहंत" शब्द का प्रयोग आगम एवं अन्य साहित्यों में प्रचुर रूप से प्रयुक्त हुआ है। यह “अरिहंत" शब्द कब, कैसे और किस प्रकार विश्रुत हुआ इसका कोई अता-पता नहीं है। अर्हत् शब्द पर से ही आर्हत धर्म नाम प्रसिद्ध है। जैनेतर साहित्य-ऋग्वेद में, उपनिषद् में, बौद्ध-साहित्य में भी अर्हन् शब्द का प्रयोग हुआ है। अरिहंत को आराध्य मानकर भी उन्हें विशेषण मानना असंगत एवं निरर्थक है। संपूर्ण जैन साहित्य में देववंदन भाष्य के अतिरिक्त अन्य स्थलों पर अरिहंत को विशेष्य ही माने गये हैं - १. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः । - आवश्यक हरिभद्रीय टीका ____ आगमोदय समिति सूरत-पत्र-५०१ २. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः। - ललितविस्तरा-रतलाम-पू. ४४ ३. लोगस्सुज्जेयगरा, एवं तु - चेइयवंदण महाभास-गा. ५५१, पृ. ९२ विसेसणंतेसिं आत्मानंद जैन सभा-भावनगर १. पृष्ठ १८९
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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