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२४२ स्वरूप-दर्शन ...................................................... ___जीव का निम्नतम विकसित रूप निगोद है, इसे अनादि वनस्पति भी कहते हैं। यह एकेन्द्रिय वनस्पति है। इसके एक-एक शरीर में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। यह जीवों का अक्षय कोश है। इन जीवों में दो प्रकार के जीव होते हैं
१. व्यवहार राशि और २. अव्यवहार राशि।
जो जीव निगोद को छोड़कर दूसरी काय में जाते हैं वे जीव व्यवहार राशि वाले जीव कहलाते हैं। व्यवहार राशि से बाहर निकलकर जीव विकास के योग्य अनुकूल सामग्रियों को प्राप्त करता है। जो कभी निगोद से बाहर ही नहीं निकलते हैं वे अव्यवहार राशि वाले जीव कहलाते हैं। इन जीवों में अनादि वनस्पति के अतिरिक्त और कोई व्यवहार नहीं पाया जाता। विकास की कोई प्रवृत्ति उनमें नहीं होती है। ये जीव स्त्यानर्द्धि निद्रा की घोरतम निद्रा के उदय से अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-सम्मूर्छिम और पंचेन्द्रिय गर्भज में क्रमशः ज्ञान . की मात्रा बढ़ती जाती है। एकेन्द्रिय
स्पर्शन। द्वीन्द्रिय
स्पर्शन और रसन। त्रीन्द्रिय
स्पर्शन, रसन और घ्राण। ... चतुरिन्द्रिय
स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु। . पंचेन्द्रिय सम्मूर्छिम __ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। पंचेन्द्रिय गर्भज
स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, अतीन्द्रिय
ज्ञान-अवधि-मूर्त पदार्थ का-साक्षात् ज्ञान। पंचेन्द्रिय गर्भज मनुष्य पूर्व के अतिरिक्त परिचित-ज्ञान और केवलज्ञान
चेतना की अनावृत-दशा। शरीर का अत्यंत वियोग विकास की अंतिम भूमिका है। यहां से जीय स्वभाव सिद्ध मुक्त दशा को प्राप्त करता है। जब जीव की ऐसी स्वाभाविक मुक्त दशा के बारे में सोचते हैं तब यह प्रश्न होता है कि जीव के साथ पुद्गल का यह सम्बन्ध कब से हुआ है? क्यों हुआ है? और कब तक रहेगा? । ___ अरिहंत की वाणी से इस का उत्तर इस प्रकार है-संयोग के द्वारा जीव अनेक प्रकार के विकृत परिणमन को निमित्त बनाकर अनेक पुद्गल परमाणुओं को कार्मण वर्गणा के रूप में परिवर्तित कर उसे सम्बद्ध करते हैं। जब तक जीव इन विकृत परिणमन से मुक्त नहीं होता है तब तक इस संयोग के बनने-मिटने की प्रक्रिया. अक्षुण्ण रहती है। ___ कार्मण वर्गणाएँ संगठित होकर आत्मा के साथ चिपक जाती हैं। हर समय अनन्त-अनन्त कार्मण वर्गणाएं आत्मा को आवेष्टित किये रहती हैं। प्रत्येक नूतन कार्मण