SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐश्वर्य को कोई अस्वीकृत कर भी सकते हैं, और अन्यों में उनका सद्भाव या स्वीकृति मान सकते हैं परंतु उनके जैसे प्रमाण से अबाधित उपदेश का प्रदान अन्य से असंभव है। अरिहंत के ज्ञान और उपदेश में वस्तु स्वभाव का वास्तविक निर्णय है, विश्व की व्यवस्था और पदार्थों के धर्मों के यथास्थित विचार हैं। “अरिहंत" विषय की पूर्णता उनके पूर्णत्व की आभारी है। वरना अपूर्ण शक्ति एवं अपूर्ण दृष्टि से पूर्णत्व कैसे प्रकट हो सकता है ? कई विद्वानों ने मुझे कई बार कहा भी कि संशोधन का यह विषय नूतन होकर भी गहन अधिक है इस पर अधिक से अधिक क्या काम हो सकता है?.......परन्तु मेरा प्रेरणा दीप वैसा ही निर्विवाद जलता रहा, विघ्नों के कई झंझावात आये पर गुरुकृपा एवं अरिहंत कृपा का यह अबूझ प्रेरणादीप वैसे ही जलता रहा। कई बार समस्याएं आती थीं, पर उनका स्मरण समाधान देता था। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि यह प्रबन्ध भक्तिवश मुझसे लिखा गया है। मैं इस की सम्पन्नता में निमित्तमात्र हूं। आज शुक्लध्यान की उज्ज्वल श्रेणी में विराजित कल्याणमूर्ति कैवल्यप्रभु अरिहंतस्वामी को शतशः वन्दन कर, प्रबन्ध अर्पण करती हूं। जो लोकोत्तर होने से भार को कम करने का उपकार करते हैं उनका लौकिक दृष्टि से औपचारिक आभार क्या मानूं? इस प्रबन्ध की पूर्ण आहुति तक जिनकी पुनीत प्रेरणा. का अजम्न स्रोत बहता रहा वे मेरे गुरु-युगल परम उपकारी आत्मार्थी मोहनऋषिजी म. सा. और विनयऋषिजी म. सा. तथा गुरुमाता शासन प्रभास्वरा उज्ज्वलकुमारीजी म. स., माणेककुंवरजी म. स. और प्रभाकुंवरजी म. स. का पुनः पुनः स्मरण करती हुई उनके प्रति सविनय भक्ति प्रकट करती हूं। न केवल मेरे शोध कार्य में ही अपितु पूरे व्यक्तित्व निर्माण में ही आपका विशेष योगदान एवं वरदहस्त रहा है। संसारी पिता श्री चीमनभाई, और माता शांतादेवी द्वारा जलाये गये मेरे श्रद्धा-भक्ति-दीप में आपने ही अवसर-अवसर पर वात्सल्य और कृपा का स्निग्ध डालकर इसे अखण्ड जलने दिया है। आज अफसोस मात्र यही है आप के प्रत्यक्ष रहते हुए, प्रबन्ध सम्पन्न कर अपार ऋण में से इस आंशिक ऋण को भी अदा न कर पाई। सर्व शुभभावों को स्वयं में सुनियोजित कर सदा स्वर्णदीप की भाँति शासन को । आलोकित कर प्रेरणास्रोत को अविरल बहाते रहने वाले वर्तमान शासन में जन-जन के भगवान आचार्य प्रवर १००८ पूज्य आनंदऋषिजी म. सा. की अनुकंपा से यह प्रबंध-ग्रंथ गरिमायुक्त और रसमय बन पाया। प्रणत भावों के साथ समस्त सफलता उन्हें मुबारक करती हूं। जिनके शुभाशीष से मेरा जीवन है ऐसी मेरी गुरुभगिनी बा. ब्र. मुक्तिप्रभाजी म. स. के अनुग्रह, विद्वत्तापूर्ण निर्देशन और पुनीत वात्सल्य के कारण उनके प्रति आजन्म कृतज्ञ हूं। [१२]
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy