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* नीतिवाक्यामृत
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समाचम सस्कर्तव्यका विवरण करते है :
सर्वसत्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमं चरणम् ॥४॥ -समस्त प्राणियों में समताभाय रखना-उनकी रक्षा करना यह सभी सत्कसंगों में सर्व मत्सव्य है। शास्त्रकारोंने लिखा है कि संसार में जितने भी दान, शील, जप और तप आदि पुण्य सर्वजन सबमें समता ( अहिंसा-प्राणिरक्षा) का स्थान सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि दयारूपी नदीके किनारे ल सर्वधर्म (दान और शीलादि ) तृण और घासकी तरह उत्पन्न होते हैं, इसलिये उसके सूख जाने अन्य प्रमं किसप्रकार सुरक्षित रह सकते हैं ? नहीं रह सकते।
रास्तिक में लिखा है कि जीवदयाको एक ओर रक्खा जाये और धर्मके सभी अवान्तर भेवोंको ली और बापित किया जावे, उनमें खेतीके फलकी अपेत्ता चिन्तामणिरत्लके फलकी तरह जीवदया
र फल होगा। जिसप्रकार चिन्तामणिरत्न मनमें चिन्तवन किये हुए अभिलपित पदाय समर्थ होने के कारण खेतीके फल (धान्यादि ) की अपेक्षा पुष्कल फल देता है उसीप्रकार
भी अन्य धर्म के अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा विशेष फल ( स्वर्गश्री और मुक्तिभी के सुख )
.. पूर्व में भी कहा जा चुका है कि अहिंसा धर्मके प्रभावसे मनुष्य दीर्घजीवी, भाग्यशाली, लक्ष्मीषान्
तिमान होता है' ||२||
ववेकी पुरुषको सबसे पहले पूक्ति मानसिक, वाचनिक और कायिक असंयम-अशुभ शामिको सागकर अहिंसा प्रत धारण करना चाहिये पश्चात् उसे दान और पूजा आदि पुण्यकार्य करना
. नीतिकार नारदने भी कहा है कि 'शिष्टपुरुषों को जूं, खटमल, डाँम, मच्छर आदि जीयोंकी भी
पाची सर रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि प्राणिरक्षा-सर्वश्रेषु है, इसके त्याग करनेसे वैरभाव का संचार होता है ।।शा
निष्कर्षः-उक्त प्रमाणोंसे प्राणि-रक्षा सर्वश्रेष्ठ है; अतः नैतिक पुरुषको उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिये || भा निर्दयी पुरुषोंकी क्रियाएं निष्फल होती है इसे बताते हैं:
न खलु भूतद्र हां कापि क्रिया प्रमूते श्रेयांसि । अर्थ:-प्राणियोंकी हिंसा करने वाले निर्दयी पुरुषों की कोई भी पुण्यक्रिया कल्याणों को उत्पन्न । स्यानदीमहातीरे सर्व धर्मास्तमाङ्कराः । तस्पा शोपमुपेताय क्यिन्नन्दन्ति ते चिरम् ॥३-संगी। १४, देखो यशस्तिलक उ.० ३३७ । था च नारद :पूछामकुणटशान्यपि प ल्यानि पुत्रवन् । एलदाचरण श्रेयत्यागो रसम्मकः ।