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'मूकमाटी': : गूढ़ चिन्तन की सहज अभिव्यक्ति
विष्णुकान्त शास्त्री
मुनिप्रवर आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित महाकाव्य 'मूकमाटी' की अविरल भावधारा में अवगाहन एक साथ यथार्थ, अध्यात्म तथा काव्य रस की अलौकिक अनुभूति कराता है। यह आचार्यजी की अद्भुत काव्य चेतना एवं करुण संवेदना ही है जिसने 'माटी' जैसी साधारण-सी दिखाई पड़ने वाली वस्तु को विषय बनाकर एक ऐसे रूपक महाकाव्य की रचना की है, जो मानव जीवन के आरम्भ से लेकर उसके संघर्षमय परिष्कार तथा उत्कर्ष तक का अत्यन्त सूक्ष्म, विशद एवं हृदयग्राही चिन्तन प्रस्तुत करता है ।
निरीह माटी की मूक वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को आचार्यजी ने केवल जैन दर्शन के धरातल पर ही नहीं बल्कि सनातन भारतीय मनीषा के अनुरूप अभिनव काव्यात्मक शैली में वाणी दी है। मिट्टी का कुम्हार, चाक एवं आँवाँ से संसर्ग तथा अन्तत: कलश अथवा कुम्भ में परिणत होना, स्वयं में ही मानव के विकास की कथा को रूपायित करता है । कथा जैसी रोचकता को निरन्तर बनाए हुए, मानव मन के संघर्ष तथा आध्यात्मिक विकास को तर्कपूर्ण ढंग से काव्यात्मक सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत करने वाली यह निस्सन्देह एक अनूठी कृति है । प्रकृति के विभिन्न उपमानों का सुन्दर छायावादी चित्रण एवं उनसे संवाद तथा शब्द लालित्य एवं वर्ण विनोद के द्वारा गूढ़ चिन्तन की सहज अभिव्यक्ति इस महाकाव्य की ऐसी विशेषताएँ हैं, जो इसे अद्वितीय बनाती हैं ।
आचार्य विद्यासागरजी मूलतः महान् जैन मुनि एवं सन्त हैं । यही कारण है कि सुख-दुःख, पाप-पुण्य और न्याय-अन्याय की अनेकानेक विसंगतियों के द्वन्द्व के बीच भी कवि का मूल स्वर मानव मात्र के कल्याण का ही रहा है:
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" संहार की बात मत करो, / संघर्ष करते जाओ !
हार की बात मत करो, / उत्कर्ष करते जाओ !” (पृ. ४३२)
"यहाँ सब का सदा, / जीवन बने मंगलमय ! / छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल - भाव, / सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो / गुण के फूल विलसित हों ।" (पृ. ४७८)
अध्यात्म और कविता दोनों को पग-पग पर गुम्फित करती हुई 'मूकमाटी' जैसी सशक्त कृति देकर आचार्य विद्यासागर ने न केवल भक्तों एवं साधकों पर महान् उपकार किया है बल्कि हिन्दी साहित्य को भी अभूतपूर्व समृद्धि प्रदान की है । ऐसी अनमोल कृति के रचयिता परमपूज्य आचार्यजी का अभिनन्दन एवं वन्दन करते हुए मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे परम यशस्वी हों और अपनी कल्याणमयी वाणी से हम सबको निरन्तर लाभान्वित करते रहें ।
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हाँ! अब शिल्पी ने
..... अहंकार का वमन किया है!