Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 609
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 521 आरम्भ करते हैं और इसी से सम्पन्न भी । इससे इनकी महत्ता स्पष्ट है । ये नौ भक्तियाँ हैं- सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति, चैत्यभक्ति, शान्तिभक्ति तथा पञ्चमहागुरुभक्ति । श्रुतभक्ति अभी प्रतीक्षा सूची में है। समाधिभक्ति जिज्ञासा का विषय बनी हुई है। पहली भक्ति है-'सिद्धभक्ति' । पंच परमेष्ठियों (परमे तिष्ठति इति परमेष्ठी) में चार कक्षाओं के अधिकारी मनुष्य हैं और एक कक्षा के अधिकारी हैं मुक्त आत्माएँ। ये ही मुक्त आत्माएँ 'सिद्ध' कही जाती हैं। आठों प्रकार के कर्मों के क्षय से जब शरीर भी नहीं रहता तो उसे (विदेह, मुक्त) सिद्ध कहते हैं । ये ऊर्ध्वलोक में लोकाग्र में पुरुषाकार छायारूप में स्थित रहते हैं। इनका पुन: संसार में आगमन नहीं होता। ये सच्चे परम देव हैं। संसारी भव्यजीव वीतराग भाव की साधना से इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। वे ज्ञान शरीरी हैं। सिद्धभक्ति में इन्हीं के गुण-गण का वर्णन किया गया है। इसमें पूर्व में की गई उनकी साधना और उससे उपलब्ध ऊँचाइयों का विवरण है। दूसरी है-चारित्रभक्ति। इसमें रत्नत्रय में परिगणित चारित्र रूप रत्न की महिमा गाई गई है और उसकी सुगन्ध आचार में प्रस्फुटित हो, यह कामना व्यक्त की गई है । दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सम्मिलित कारणता है - मोक्ष के प्रति । जैन शास्त्रों में इसके अन्तर्गत अत्यन्त सूक्ष्म और वर्गीकृत विवेचन मिलता है । आचार्यश्री ने भी तमाम पारिभाषिक शब्दों का सांकेतिक प्रयोग किया है । उदाहरण के लिए कायोत्सर्ग, गुप्तियाँ, महाव्रत, ईर्या आदि समितियाँ, तेरहविध चारित्र, कर्म-निर्जरा आदि। __तीसरी भक्ति है-योगिभक्ति । सनातनी विद्या की अभिव्यक्ति की दो धाराएँ हैं-शब्द और प्रातिभ । अभिव्यक्ति की दूसरी धारा श्रमणमार्ग की धारा है । तप एवं खेद के अर्थवाली दिवादिगण में पठित श्रमु' धातु में 'ल्युट् प्रत्यय होने पर 'श्रमण' शब्द निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है - तपन या तप करना । पर धारा विशेष में यह योगरूढ़' है-यों यौगिक तो है ही। तप ही इस धारा की पहचान है । यह तत्त्व न तो उस मात्रा में ब्राह्मण धारा में है और न ही बौद्ध धारा में । योगिभक्ति में आचार्यश्री ने प्रबल तपोविधि का विवरण दिया है । कहा गया है : "बाह्याभ्यन्तर द्वादशविध तप तपते हैं मद-मर्दक हैं।" चौथी भक्ति है-आचार्यभक्ति। पंच परमेष्ठी में तृतीय स्थान आचार्य का है । अध्यात्ममार्ग के पथिक को आचार्य की अँगुली, उनका हस्तावलम्ब अनिवार्य है और यह उनकी भक्ति से ही सम्भव है । कहा गया है : "उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैः शिवार्थिभिः। तत्पक्षताद्य-पक्षान्तश्चराविघ्नोरगोत्तराः ॥" सागार-धर्मामृत, २/४५ आचार्य रूप श्री सद्गुरु स्वयं दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य- इन पाँच प्रकार के आचारों का पालन करता है और अन्य साधुओं से भी उसका पालन कराता है, दीक्षा देता है, व्रतभंग या सदोष होने पर प्रायश्चित कराता है । आस्रव के लिए कारणीभूत सभी सम्भावनाओं से अपने को बचाता है। इसमें आचार्य के छत्तीस गुण बताए गए हैं। पाँचवी भक्ति है - निर्वाणभक्ति । आचार्यश्री का संकल्प है : "निर्वाणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग । आलोचन उसका करूँ ले प्रभु तव संसर्ग॥" 'महावीर' पदवी से विभूषित तीर्थंकर वर्धमान का निर्वाणान्त पंचकल्याणक अत्यन्त शोभन शब्दों से वर्णित है। इन तीर्थंकर के साथ कतिपय अन्य पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की निर्वाणभूमियाँ उनके चिह्नों के साथ वर्णित हैं।

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