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मूकमाटी-मीमांसा के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले मुनिराज के केवलज्ञानोपलब्धि की चर्चा है । केवली तत्त्वतः तो अपने को जानता है, पर व्यवहारतः स्व और पर दोनों को जानता है। ऐसे अर्हन्त की भक्ति की जानी चाहिए। एक समय था जब सम्यग्दर्शन के साथ दोनों धर्म हुआ करते थे - मुनि धर्म और श्रावक धर्म । पहला मुक्ति में साक्षात् कारण होता था और दूसरा परम्परया । परन्तु आज दोनों ही धर्म-परम्परा से ही मुक्ति के लिए कारण हैं । कारण, आज साक्षात् केवलज्ञान नहीं होता । इसलिए आचार्यश्री का कहना है कि इस तथ्य को सही-सही समझकर अपने मार्ग को आगे तक प्रशस्त करने का ध्यान रखना है । नवम प्रवचन में आचार्यश्री का कहना है कि द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म - इन तीनों कर्मों से अतीत होकर के सच्चे अर्थों में उस आत्मा का जन्म तो अब हुआ है। सिद्ध परमेष्ठी की सही जन्म जयन्ती अब हुई है। निर्वाण कल्याणक में कुछ और ही आनन्द है । कल तक समवसरण की रचना थी । तब वे अर्हन्त परमेष्ठी माने जाते थे । उस समय तक केवलज्ञान था, पर मुक्ति नहीं थी । सत्ता मिलने का आश्वासन और बात है तथा सत्ता का हस्तान्तरण और बात है । परमेष्ठियों के भी कई सोपान हैं- साधु परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, अरहन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी । अरहन्त रूप तीर्थंकर भी सिद्ध परमेष्ठी को नमन करते हैं। सिद्ध सबके आराध्य हैं - शेष सभी आराधक हैं । अरहन्त परमेष्ठी भी भगवान् नहीं हैं - उन्हें उपचारत: भगवान् कहा जाता है । साधु की साधना छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होती है । सिद्ध परमेष्ठी चौदहवें गुणस्थान को भी पार कर जाते हैं । इन्हें शाश्वत सिद्धि प्राप्त जाती है। फिर भी अरहन्त को पहले इसलिए प्रणाम करते हैं कि वे हमें दिखते हैं और उपदेश देते हैं । दसवें प्रवचन में गजरथ महोत्सव की बात की गई है और प्रसंगत: दान और ध्यान के विभिन्न रूपों की भी बात की गई है । दान में धनदान, शास्त्रदान, भूदान आदि के बीच शास्त्रदान तत्त्वत: उपकरणदान है। जहाँ तक ध्यान का सम्बन्ध है-एक है अपायविचय धर्मध्यान । आज्ञाविचय धर्मध्यान से इसकी महत्ता इसलिए अधिक है कि इसमें सबके कल्याण की भावना है। इस प्रकार की बहुत-सी बातें करते हुए अन्तत: उन्होंने जैन - अजैन सबसे कहा है कि वे लोग धर्म की भावना दिन दूनी रात चौगुनी करते रहें ।
प्रवचनिका (१९९३, सागर, मध्यप्रदेश)
इस उपखण्ड में कुल छह प्रवचन हैं- प्रारम्भ, श्रेष्ठ संस्कार, जन्म-मरण से परे, समत्व की साधना, धर्मदेशना तथा निष्ठा से प्रतिष्ठा । प्रारम्भ : इस प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा है कि अभी ध्वजारोहण हुआ है, अब पंचकल्याणक होंगे । अतीत में यह घटना किस प्रकार घटित हुई होगी, इस पर विचार की प्रतिश्रुति भी दी गई है और इस विवरण के मूल में जाने का उद्देश्य यह है कि हम भी मोह का त्याग करें। पर यह सब साधन हैं और साध्य हम स्वयं हैं । भरत चक्रवर्ती को काम - पुरुषार्थ तथा अर्थ- पुरुषार्थ ने आकृष्ट नहीं किया, परन्तु जब सेवक से यह सुना कि आदिनाथ भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है तो इस सूचना पर प्रसन्न होकर तत्काल सपरिवार भगवान् आदिनाथ के समवसरण में सम्मिलित होने चले गए। हमें भी इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिए और संसार के तमाम प्रलोभनों से हटकर मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इन या ऐसे आयोजनों से हमारी दृष्टि में परिवर्तन होना चाहिए । दृष्टि के ऊपर ही हमारे भाव निर्भर हैं। जैसे-जैसे दृष्टि अन्तर्मुख होती जाती है, भाव भी अपने आप शान्त होते जाते हैं । अन्ततः उनका यही अनुरोध रहा कि चक्रवर्ती की भाँति भावना हमारे, आप सबके भीतर आए । श्रेष्ठ संस्कार : इसमें बताया गया है कि उपादान में उत्तम सम्भावना है, पर निमित्त या नैसर्गिक संस्कार से ही उत्तम सम्भावना उपलब्धि बनती है। जल की बूँद में मोती बनने की सम्भावना है, पर एक तो वह स्वाति नक्षत्र की हो, दूसरे वह समुद्र की खुले मुँह वाली सीपी में ही पड़े और फिर वह मुख बन्द कर सागर में नीचे चली जाय, तभी मोती रूप में