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228 :: मूकमाटी-मीमांसा
संगीत और रस के तत्त्व विवेचन के साथ माटी की रौंदन क्रिया सम्पन्न होती है। माटी का लोंदा चक्र पर रख
दिया जाता है । चक्र पर घूमती हुई माटी शिल्पी से संसार की व्याख्या करती है :
".
'सृ' धातु 'गति के अर्थ में आती है, /सं यानी समीचीन / सार यानी सरकना " जो सम्यक् सरकता है/ वह संसार कहलाता है // काल स्वयं चक्र नहीं है संसार-चक्र का चालक होता है वह / यही कारण है कि
उपचार से काल को चक्र कहते हैं / इसी का परिणाम है कि
चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में / चक्कर खाती आ रही हूँ ।" (पृ.१६१ )
संसार ही चक्र है, काल ही संसार चक्र का चालक दण्ड है और कुम्भकार या शिल्पी स्रष्टा है - जो क्षिति, जलादि पंच तत्त्वों से प्राणी का काय- कलेवर निर्मित करता है। चक्र पर घूमती हुई मिट्टी का माथा जिस तरह घूमता है, उसी प्रकार तेलघानी के कोल्हू के बैलों की तरह सांसारिकता की परिधि में ही घूमते-घूमते मनुष्य अपने बहुमूल्य जीवन की इतिश्री कर देता है, कभी विश्रान्ति का अनुभव नहीं कर पाता । जीवन केन्द्र में रमण के बिना मानव चेतना hat विश्रान्ति की अभिप्राप्ति नहीं हो सकती :
" परिधि में भ्रमण होता है / जीवन यूँ ही गुज़र जाता है,
केन्द्र में रमण होता है / जीवन सुखी नज़र आता है ।" (पृ. १६२)
जीवन की परिधि पर सम्पन्न सारी क्रियाएँ अन्ततः दुःख सागर में ही निपतित करती हैं। जीवन की परिधि पर उस चेतना का वास नहीं रहता जो आनन्द का स्रोत है । आनन्दप्रद परम चेतना का प्रभामण्डल तो जीवन केन्द्र पर ही अधिष्ठित रहता है।
कुम्भ बन कर तैयार हो जाता है। चक्र से उतारकर कुम्भ को शिल्पी दो-तीन दिन सुखाता है, फिर ठोक-पीट कर सुधारता है । कुम्भ पर शिल्पी कुछ तत्त्वबोधी संख्याओं के अंकन के साथ विचित्र चित्रों को चित्रित करता है और कविता की कुछ पंक्तियाँ भी उकेरता है। कुम्भ के कर्ण स्थल पर सुशोभित ९९ और ९ की संख्याओं के कर्णफूल क्रम से मोह और मोक्ष को द्योतित करते हैं । ९९ की संख्या को दो, तीन, चार, पाँच, छह आदि संख्याओं से गुणित करके कितना ही बढ़ा लिया जाए, किन्तु उसकी लब्ध-संख्या का योग ९ ही रहता है। जैसे - ९९ x २ = १९८, १+९+८=१८, १+८=९ इस प्रकार गुणन-क्रम ९ की संख्या तक ले जाने पर भी लब्ध - संख्या का योग ९ ही रहता है । ९९ का संख्यात्मक प्रतीक यह तथ्य व्यक्त करता है कि संसार निन्यानबे का चक्कर है, इसलिए माया है, छलना है, मिथ्या है। और ९ की संख्या अक्षय आत्म-तत्त्व का प्रतीकार्थ व्यक्त करती है। वस्तुत: आत्मसाधना ही ९ यानी नवजीवन का स्रोत है। कुम्भ के कण्ठ पर ६३ की संख्या अंकित है, जो प्रेम का प्रतीक है। तिरसठ की छह और तीन की संख्या की तरह सज्जन भी एक-दूसरे के सुख-दुःख के सहभागी होते हैं । ६३ की विलोम संख्या ३६ है, जो कलह, संघर्ष और बैर का प्रतीक है। दुर्जन एक-दूसरे से छत्तीस का ही रिश्ता रखते हैं। छत्तीस के आगे तीन की संख्या जुड़ जाने पर तीन सौ तिरसठ बनता है । वर्तमान समाज में तीन सौ तिरसठ मतों का ही बोलबाला है, जिसके परिणामस्वरूप आज विश्व में लोग खून के प्यासे हो गए हैं। आतंकवादी और उग्रवादी हिंसा का नंगा नाच कर रहे हैं।
सिंह और श्वान का चित्रांकन भी कुम्भ पर किया जाता है। सिंह स्वाधीनताप्रेमी होता है, जबकि श्वान को पराधीनता से कतई परहेज़ नहीं होता । गुलामी का पट्टा उसके गले का आभूषण बन जाता है। सिंह और श्वान में एक बहुत बड़ा अन्तर यह होता है कि 'सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है,' क़ौमी एकता का निदर्शन प्रस्तुत करता है,