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मूकमाटी-मीमांसा :: 229 इसलिए वह निर्बन्ध होता है । श्वान जाति गुर्राऊ होता है, क़ौमी एकता का विघातक होता है, इसलिए वह दासता का जीवन व्यतीत करता है।
कुम्भ पर अंकित कछुवा और खरगोश के चित्र ज्ञापित करते हैं कि मन्थर गति से चलता हुआ कछुवा नियत समय में गन्तव्य तक पहुँचता है, जबकि तीव्र गति वाला खरगोश पथ में नींद लेने के कारण बहुत पीछे रह जाता है। इसी तरह प्रमाद साधक की आत्मोपलब्धि में व्यवधान उपस्थित करता है । इसलिए साधक को साधना पथ पर प्रमाद रहित होकर निरन्तर चलते रहना चाहिए।
कुम्भ पर 'ही' और 'भी' बीजाक्षर भी अंकित हैं। 'ही' एकान्तवाद का और भी' अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का प्रतीक है :
"हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो!/और,/'भी' का कहना है कि
हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ !" (पृ. १७२-१७३) अनेकान्तवाद जैन दर्शन का अद्भुत प्रदेय है। अनेकान्तवाद इस विचार पर आधारित है कि सत्य अनन्त है, उसके अनेक आयाम हैं । सामान्यत: कोई भी व्यक्ति सत्य को सम्पूर्ण रूप से जानने का दावा नहीं कर सकता। सत्य के एक पहलू को ही वह जानता है । यदि कोई तत्त्वदर्शी सत्य का सम्यक् साक्षात्कार कर भी लेता है तो उसे पूर्ण रूप से व्यक्त करने में वह अपने को असमर्थ पाता है । इसलिए सत्य के एकपक्षीय दृष्टिकोण का समर्थन और दूसरे दृष्टिकोण का विरोध नहीं करना चाहिए वरन् परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों में सामंजस्य ढूँढ़ने की चेष्टा करनी चाहिए। किसी अपेक्षा से मेरा कथन सत्य और किसी अन्य अपेक्षा से आपका कथन भी सत्य'- अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का यह दर्शन यदि जन-जन की आत्मा में उतर जाए तो विश्व में अहिंसा, प्रेम और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाए । सारे झगड़े की जड़ ही' है, एकान्तवाद है । 'हो' के प्रयोग में आंशिक सत्य का आग्रह है । इस प्रकार के दुराग्रह में आंशिक सत्य भी सत्य न रहकर फिर असत्य बन जाता है । इसलिए :
" 'भी'से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है/स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं, सद्विचार सदाचार के बीज/'भी' में हैं, 'ही' में नहीं। प्रभु से प्रार्थना है, कि/'ही' से हीन हो जगत् यह
अभी हो या कभी भी हो/'भी' से भेंट सभी की हो।” (पृ. १७३) कुम्भ पर अंकित कर पर कर दो पंक्ति सन्देश देती है कि निरन्तर कर्मनिरत रहने से ही भविष्य उज्ज्वल और जीवन सार्थक होता है । चार शब्दों की कविता 'मर हम मरहम बनें' भी कुम्भ पर अंकित है । इसका आशय है कि पाषाणवत् निष्ठुर व्यक्ति से ठोकर खाकर कितने व्यक्ति लहूलुहान हो जाते हैं, लेकिन यदि संयोगवश उसका हृदय परिवर्तित होकर करुणाप्लावित हो जाता है तो उसे अनुताप होता है, जिसके परिणामस्वरूप वह अपने हिंसामय निकृष्ट जीवन को परिसंस्कारित करके 'मरहम' स्वरूप लोकमंगलकारी नवजीवन का शुभारम्भ करता है । ईश्वरीय अनुग्रह से घटित व्यक्तित्व में ऐसा क्रान्तिकारी शुभ परिवर्तन व्यक्ति को दस्यु रत्नाकर से परम कारुणिक महर्षि वाल्मीकि बना देता है। तब रोते हुए लोगों को हँसाना और गिरे हुए लोगों को उठाना ही उसकी ज़िन्दगी का मक़सद बन जाता है। ऐसे ऊँचे 'मक़सद' वाले व्यक्ति को लक्ष्य करके एक शायर कहता है :