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288 :: मूकमाटी-मीमांसा
व्यंजना एवं लक्षणा के माध्यम से अभिव्यक्ति की गई है । इसकी शैली वर्णनात्मक एवं व्याख्यापरक होने के साथसाथ, तुलनात्मक, प्रश्नात्मक, दृष्टान्तात्मक, सम्बोधनात्मक, मनोवैज्ञानिक, समीक्षात्मक तथा आत्मविश्लेषणात्मक भी है।
इसका प्रकृति चित्रण, ऋतु वर्णन अत्यन्त रमणीय है । प्रकृति का कहीं-कहीं मानवीकरण भी किया गया है। यह सम्प्रेषक भी बनी है। इसके वार्तालाप भी जीवन दर्शन को प्रकट करते हैं।
यद्यपि काव्य की भाषा खड़ी बोली है, फिर भी इसमें देशज और विदेशी शब्दों का पर्याप्त उपयोग है । इसमें बुन्देली भाषा के अगणित शब्द (मठा, महेरी आदि) हैं। इनसे भाषा में आकर्षण और प्रभावकता आई है। ५. समग्र जीवन का चित्रण : 'मूकमाटी' में मिट्टी के घट और कलश रूप धारण करने की कथा के माध्यम से कवि - ने समग्र मानव जीवन के उत्थान की कथा वर्णित की है जो साधना से शिवत्व की ओर ले जाती है। ६. महान् उद्देश्य : मूकमाटी' का उद्देश्य प्राचीन आचार्यों द्वारा सम्मत मार्ग से जीवात्मा को साधना के द्वारा शाश्वत
सुख का धाम बनाना है। इसके माध्यम से अहिंसक जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा, मनुष्य एवं समाज के सांस्कृतिक उत्थान में योगदान, सामयिक जटिलताओं के समाधान के लिए प्रशस्त मार्गनिर्देश, प्राकृतिक चिकित्सा की श्रेष्ठता का उद्घोष, आतंकी मनोविकारों का समुचित आचरण से विदलन, प्राचीन परम्पराओं में विश्वास की पृष्ठभूमि पुष्ट की गई है । इसमें मानवतावादी जीवन दृष्टि एवं जीवन की उन्नति के सोपान बताए गए हैं । फलत: इसका उद्देश्य सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक महत्त्व का है।
यह एक रूपक महाकाव्य है, यह स्पष्ट है । इसके निर्माण में परिवेश, साधु जीवन की अनुभूति एवं स्वान्तःसुख की धारणा प्रेरक रही है। यह तथ्य भी प्रेरक रहा होगा कि रसमय साहित्य मानव मन पर प्रवचन की तुलना में अधिक स्थायी प्रभाव डालता है। सामान्यत: अब तक के महाकाव्य प्रथमानुयोग की कोटि में आते रहे हैं, पर यह महाकाव्य ऐसा है जिसमें चारों अनुयोगों के वर्णन समाहित हैं। अत: इसकी अनुयोग-कोटि का निरूपण इसके महाकाव्यत्व के प्ररूपण की तुलना में दुरूह कार्य है । अत: ललित कोटि के इस महाकाव्य को 'आगमयुगीन अनुयोगविहीन परम्परा का नवयुगीन ग्रन्थ' कहा जा सकता है। 'मूकमाटी' : रूपक के साथ एक मनोवैज्ञानिक महाकाव्य
आचार्य विद्यासागर के साहित्य में उनकी अन्तर्मुखी दृष्टि अधिक प्रबल है। 'मूकमाटी' के प्रेरक तत्त्व के रूप में उनके गुरु की साहित्य सर्जना एवं उनकी अपूर्व साहित्य निर्माण की धारणा तो प्रमुख रही ही है, पिसनहारी की मढ़िया (जबलपुर) मध्यप्रदेश, नयनागिरि (छतरपुर) मध्यप्रदेश एवं अन्य तीर्थक्षेत्रों के नयनाभिराम परिवेश एवं पाथेय भी इसके प्रेरक रहे हैं। इसीलिए यह लौकिक के माध्यम से लोकोत्तर की ओर ले जाने वाली कृति सिद्ध हुई है। महाकाव्य के अन्त:समीक्षण से यह स्पष्ट है कि हमारे जीवन का प्राय: बीस प्रतिशत भाग ही धर्म पुरुषार्थ की प्रवृत्तियों में लगता है। जैसे अर्थ का चरमोत्कर्ष काम (इच्छापूर्ति) है, उसी प्रकार धर्म का चरमोत्कर्ष मोक्ष है।
___इस काव्य में मनोवैज्ञानिकता के स्वीकृत तत्त्व भी परिपुष्ट हुए हैं। दैनिक जीवन के लोकप्रिय एवं उपयोगी प्रक्रम के माध्यम से लोकोत्तरता की ओर मुड़ने का संकेत स्वयं पाठक पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ता है । वस्तुतः साहित्य निर्माण एक उत्कृष्ट मानसिक, ज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसमें बुद्धि, चिन्तन, अनुभव, कल्पना, भाषा, अभिव्यक्ति और दूरदर्शी-लोक-विचरण आदि का गंगा-जमुनी मधुर प्रवाह पाया जाता है । इसके लेखन में : १. लाभदायक लक्ष्य (साधना के माध्यम से शाश्वत सुख, सर्वजन मंगलमयता) निर्दिष्ट है। २. लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग (उपसर्ग-सहन, अहिंसक जीवन, तप आदि) भी निर्दिष्ट है।