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मूकमाटी-मीमांसा :: 305
"मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं।/और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं। इस लेखनी की भी यही भावना है-/कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक/जागृत "जीवित "अजित !" (पृ. २४५) उक्त 'यथाकार' शब्द में शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप के बोध का आध्यात्मिक संकेत निहित है। इस महाकाव्य में यथास्थान आधुनिक युगबोध भी झलकता-झाँकता दिखता है। उदाहरणार्थ- चतुर्थ खण्ड में अधिकारासक्ति, धन लिप्सा, आतंकवाद की वर्तमान समस्या और वर्तमान जीवन के अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ भी उकेरे गए हैं और साथ ही उनके समाधान का सूक्ष्म निर्देश भी किया गया है । कवि विविध दलों की राजनीति के घृणित, कुत्सित रूप को उजागर करता हुआ कहता है :
0 "दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना!/जितने विचार, उतने प्रचार
उतनी चाल-ढाल/हाला घुली जल-ता/क्लान्ति की जननी है ना!" (पृ. १९७) 0 "तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए/कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए
सब कुछ अनर्थ घट सकता है !" (पृ. १९७) ___ आज के ह्रासोन्मुख जीवन मूल्यों की स्थिति बड़ी भयावह होती जा रही है । कवि की दृष्टि उस पर भी पड़ी है:
"हाय रे !/समग्र संसार-सृष्टि में/अब शिष्टता कहाँ है वह ?
अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र!" (पृ. २१२) इस काव्य कृति में अनेकानेक जीवनोपयोगी सूक्ति रत्न भी बिखरे पड़े हैं जिनकी दीप्ति से कवित्व जगमगाता दृष्टिगोचर होता है, यथा:
0 "तन का नियन्त्रण सरल है/और/मन का नियन्त्रण असम्भव तो नहीं,
तथापि/वह एक उलझन अवश्य है/कटुक-पान गरल है वह"।" (पृ. १९८) 0 “धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों से/गृहस्थ जीवन शोभा पाता है।" (पृ.२०४) ० "तीर मिलता नहीं बिना तैरे।"(पृ. २६७) ० "आत्म-साक्षात्कार सम्भव नहीं तब,/सिद्ध-मन्त्र भी मृतक बनता है।"
(पृ. २९५) आज नगरों में अनेक ध्यान केन्द्र भी खुलते सुनाई देते हैं किन्तु मात्र केन्द्र स्थापन से कुछ भी होने का नहीं। सच्ची साधना यात्रा तो विराम और अनन्त होती है :
0 “ध्यान की बात करना/और/ध्यान से बात करना/इन दोनों में बहुत अन्तर है
ध्यान के केन्द्र खोलने-मात्र से/ध्यान में केन्द्रित होना सम्भव नहीं।"(पृ. २८६) 0 "निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर