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मूकमाटी-मीमांसा :: 505
३६. हुआ है जागरण : हे निरावरण ! इस चेतना ने अनादि भूल से सावरण का वरण कर लिया है। फलत: अनन्त
काल से जनन-जरा-मरण सहती आयी है, किन्तु अब सुकृतवश जागरण हो चुका है । अत: आपके
नामोच्चारण का सहारा लेकर तुम-सा निरामय होने को प्रस्तुत है। २. डूबो मत, लगाओ डुबकी (१९८१)
इस संग्रह में कुल ४२ रचनाएँ हैं। आचार्यश्री का मन्तव्य है कि जब गहराई का आनन्द लेने के लिए डुबकी लगाना चाहो, तो पहले तैरना सीखना होगा और तैरने के अभ्यास के लिए तुम्बी का सहारा अनिवार्य है । इस कला में निष्णात हो जाने पर ही डुबकी लगाना सम्भव है । तब सहारे को भी छोड़ना पड़ता है, अन्यथा वह बाधक ही बनेगी। तब हाथ-पाँव मारना भी बाधक बनेगा। तैरने की कला में निष्णात चेतना ही आश्वस्त और स्वायत्त होगी । ज्ञान गुण के स्फुरण के लिए आगमालोक-आलोड़न, गुरुवचन-श्रमण-चिन्तन आवश्यक है । यही तैराकी की कला में निष्णात होने के लिए तुम्बी है।
इस मुख्य रचना के अतिरिक्त अन्य प्रकार की भी भाव और विचार की तरंगें समुच्छलित हैं। कहीं गन्तव्य की ओर धैर्य और आस्था के साथ भोर की प्रत्याशा में यात्रा है, कहीं चरणों में दृष्टि झुकी है। कहीं पीयूष भरी आँखें हैं तो कहीं मन्मथ का मन्थन । कभी लगता है कि काफी विलम्ब हो गया - पर अब विलम्ब मत करो। सुधावर्षण से शान्त शुद्ध परमहंस बना दो इसे। ३. तोता क्यों रोता (१९८४)
इस संकलन में कुल ५५ रचनाएँ हैं। इसकी प्रमुख कविता 'तोता क्यों रोता' में दाता और पात्र-आदाता के बीच पहला प्रशस्ति की अपेक्षा रखता है और पात्र-आदाता मान-सम्मान की। दोनों को दोनों से अपेक्षित नहीं मिलता देखकर वक्ष की डाल पर बैठा तोता पथिक पात्र-आदाता की ओर निहारता है। सोचता है यह क्षण उसके लिए पण्यकर है । वह रसमय परिपक्व फल चुन कर ससम्मान पथिक पात्र-आदाता को देना ही चाहता है कि अतिथि की ओर से मौनभाषा की शुरूआत होती है । दान अपने श्रम से अर्जित का होता है, दूसरे की चीज चुराकर दान देना चोरी है । ऐसा उपकार दान का नाटक है । अपने श्रम से अर्जित आत्मीय का दान ही दान है । दान की यह कथा सुनकर उसका मन व्यथित होता है और अपनी अकर्मण्यता पर वह रोता है। प्रभु से प्रार्थना की जाती है कि इसका अगला जीवन श्रमशील बने । पके फल को चिन्ता होती है कि कहीं अभ्यागत खाली लौट न जाय, अत: पवन को इशारा करता है कि वह सहायक बने । पवन की सहायता से फल बन्धनमुक्त होता है, मान-सम्मान और प्रशस्ति का सन्दर्भ ही समाप्त । फल अपने पिता वृक्ष की ओर देखता है जिसका पित्त प्रकुपित है-आँगन में अतिथि खड़ा है और ये हैं कि निष्क्रिय । स्वयं दान देते नहीं और देने भी नहीं देते। ये मोह-द्रोहग्रस्त हैं। पवन के झोंके से आत्मदान के लिए लालायित फल पात्र के हाथ में आ जाता है। फल पवन से कहता है कि वह इसे इधर-उधर नहीं, पात्र के हाथ पर ही गिराए । फल का स्वप्न साकार होता है, पवन भी बड़भागी बनता है। अतिथि तो प्रस्थित हो जाता है, पर डाल के गाल पर लटकता अधपका दल बोल पड़ा-“कल और आना जी ! इसका भी भविष्य उज्ज्वल हो, करुणा इस ओर भी लाना जी" । अतिथि हलकी-सी मुसकान से अपनी गीता सुनाता चला जाता है और फलदत्त की आँख उसकी पीठ की ओर लगी रह जाती है।
इस प्रकार इस संग्रह की भिन्न-भिन्न रचनाओं में और-और भी दिशानिर्देशक उपदेशप्रद भावनाएँ भरी हुई हैं। ४. निजानुभव-शतक (७ सितम्बर, १९७३)
इस शतक के आरम्भ में जिनेश स्मरण, श्रीगुरु ज्ञानसागर वन्दन, जिनेन्द्र वाणी का स्तवन कर आचार्यश्री ने